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श्रीमद् राजचन्द्र
वास्तविक तो यह है
कि किये हुए कर्म भोगे बिना निवृत्त नही होते, और न किये हुए किसी कर्मका फल प्राप्त नही होता। किसी किसी समय अकस्मात् वर अथवा शापसे किसीका शुभ अथवा अशुभ हुआ देखनेमे आता है, वह कुछ न किये हुए कर्मका फल नही है । किसी भी प्रकारसे किये हुए कर्मका फल है |
केन्द्रियका एकावतारीपन अपेक्षासे जानने योग्य है । यही विनती ।
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४११ बबई, आसोज सुदी १० (दशहरा), १९४८
'भगवती' इत्यादि शास्त्रोमे जो किन्ही जीवोके भवातरका वर्णन किया है, उसमे कुछ सशयात्मक होने जैसा नही है । तीर्थंकर तो पूर्ण आत्मस्वरूप है । परन्तु जो पुरुष मात्र योगध्यानादिकके अभ्यासबलसे स्थित हो, उन पुरुषोमेसे बहुतसे पुरुष भी उस भवातरको जान सकते हैं, और ऐसा होना यह कुछ कल्पित प्रकार नही है । जिस पुरुषको आत्माका निश्चयात्मक ज्ञान है, उसे भवातरका ज्ञान होना योग्य है, होता है | क्वचित् ज्ञानके तारतम्यक्षयोपशमके भेदसे वैसा नही भी होता, तथापि जिसे आत्माकी पूर्ण शुद्धता रहती है, वह पुरुष तो निश्चयसे उस ज्ञानको जानता है, भवातरको जानता है । आत्मा नित्य है, अनुभवरूप है; वस्तु है, इन सब प्रकारोके अत्यन्तरूपसे दृढ होनेके लिये शास्त्रमे वे प्रसग कहने आये है
यदि भवातरका स्पष्ट ज्ञान किसीको न होता हो तो आत्माका स्पष्ट ज्ञान भी किसीको नही होता, ऐसा कहने बराबर है, तथापि ऐसा तो नही है । आत्माका स्पष्ट ज्ञान होता है, और भवातर भी स्पष्ट प्रतीत होता है । अपने और दूसरेके भवको जाननेका ज्ञान किसी प्रकारसे विसवादिताको प्राप्त नही होता । तीर्थंकरके भिक्षार्थं जाते हुए प्रत्येक स्थानपर सुवर्णवृष्टि इत्यादि हो, यो शास्त्र के कथनका अर्थ समझना योग्य नही है, अथवा शास्त्रमे कहे हुए वाक्योका वैसा अर्थ होता हो तो वह सापेक्ष है, लोकभाषा
ये वाक्य समझने योग्य हैं । उत्तम पुरुषका आगमन किसीके वहाँ हो तो वह जैसे यह कहे कि 'आज अमृतका मेह बरसा', तो वह कहना सापेक्ष है, यथार्थ है, तथापि शब्दके भावार्थमे यथार्थ है, शब्दके सीधेमूल अर्थमे यथार्थ नही है । और तोथंकरादिकी भिक्षाके सम्बन्धमे भी वैसा ही है । तथापि ऐसा ही मानना योग्य है कि आत्मस्वरूपसे पूर्ण पुरुषके प्रभावयोगसे वह होना अत्यन्त सम्भव है । सर्वत्र ऐसा हुआ है ऐसा कहनेका अर्थ नही है, ऐसा होना सम्भव है, यो घटित होता है, यह कहनेका हेतु है । जहाँ पूर्ण आत्मस्वरूप है वहाँ सर्वं महत् प्रभावयोग अधीन है, यह निश्चयात्मक बात है, नि. सन्देह अगीकार करने योग्य बात है । जहाँ पूर्ण आत्मस्वरूप रहता है वहाँ यदि सर्वं महत् प्रभावयोग न हो तो फिर वह दूसरे किस स्थलमे रहे ? यह विचारणीय है । वैसा तो कोई दूसरा स्थान सम्भव नही है, तब सर्व महत् प्रभावयोगका अभाव होगा । पूर्ण आत्मस्वरूपका - प्राप्त होना अभावरूप नही है, तो फिर सर्व महत् प्रभावयोगका अभाव तो कहाँसे होगा ? और यदि कदाचित् ऐसा कहनेमे आये कि आत्मस्वरूपका पूर्ण प्राप्त होना तो संगत है, महत् प्रभावयोगका प्राप्त होना सगत नही है, तो यह कहना एक विसवादके सिवाय अन्य कुछ नही है, क्योंकि वह कहनेवाला शुद्ध आत्मस्वरूपकी महत्तासे अत्यन्त हीन ऐसे प्रभावयोगको महान समझता है, अगीकार करता है, और यह ऐसा सूचित करता है कि वह वक्ता आत्मस्वरूपका ज्ञाता नही है ।
उस आत्मस्वरूपसे महान ऐसा कुछ नही है । इस सृष्टिमे ऐसा कोई प्रभावयोग उत्पन्न नही हुआ है, नही है और होनेवाला भी नही है कि जो प्रभावयोग पूर्ण आत्मस्वरूपको भी प्राप्त न हो । तथापि उस प्रभावयोगके विषयमे प्रवृत्ति करनेमे आत्मस्वरूपका कुछ कर्तव्य नही है, ऐसा तो है, और यदि उसे उस प्रभावयोगमे कुछ कर्तव्य प्रतीत होता है, तो वह पुरुष आत्मस्वरूपसे अत्यन्त अज्ञात है, ऐसा समझते हैं ।