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श्रीमद् राजचन्द्र ___ पडे हुए संस्कारोका मिटना दुष्कर होता है। कुछ कल्याणका कार्य हो या चिन्तन हो, यह साधनका मुख्य कारण है । बाकी ऐसा कोई विषय नही है कि जिसके पीछे उपाधितापसे, दीनतासे दुखी होना योग्य हो अथवा ऐसा कोई भय रसना योग्य नहीं है कि जो अपनेको केवल लोकसज्ञासे रहता हो।
४३० बबई, माघ व दी ३०, गुरु, १९४९ यहाँ प्रवृत्ति-उदयसे समाधि है। आपको लीमडीसम्बन्धी जो विचार रहता है, वह करुणा भावके कारणसे रहता है, ऐसा हम समझते हैं।
कोई भी जीव परमार्थको मात्र अशरूपसे भी प्राप्त होनेके कारणोको प्राप्त हो, ऐसा निष्कारण करुणाशील ऋपभादि तीर्थङ्करोने भी किया है, क्योकि सत्पुरुषोके सम्प्रदायकी ऐसी सनातन करुणावस्था होती है कि समयमात्रके अनवकाशसे समूचा लोक आत्मावस्थामे हो, आत्मस्वरूपमे हो, आत्मसमाधिमे हो, अन्य अवस्थामे न हो, अन्य स्वरूपमे न हो, अन्य आधिमे न हो, जिस ज्ञानसे स्वात्मस्थ परिणाम होता है, वह ज्ञान सर्व जीवोमे प्रगट हो, अनवकाशरूपसे सर्व जीव उस ज्ञानमे रुचियुक्त हो, ऐसा ही जिसका करुणाशील सहज स्वभाव है, वह सनातन सप्रदाय सत्पुरुषोका है।
आपके अन्त करणमे ऐसी करुणावृत्तिसे लीमडीके विषयमे वारवार विचार आया करता है, और आपके विचारका एक अंश भी फल प्राप्त हो अथवा वह फल प्राप्त होनेका एक अश भी कारण उत्पन्न हो तो इस पचमकालमे तीर्थंकरका मार्ग बहुत अशोसे प्रगट होनेके बराबर है, तथापि वैसा होना सम्भव नही है, और उस मार्गसे होने योग्य नही है, ऐसा हमे लगता है। जिससे सम्भव होना योग्य है अथवा इसका जो मार्ग है, वह अभी तो प्रवृत्तिके उदयमे है, और वह कारण जब तक उनको लक्ष्यगत न हो तब तक दूसरे उपाय प्रतिबंधरूप है, नि सशय प्रतिवन्धरूप हैं।
__ जीव यदि अज्ञान परिणामी हो तो जैसे उस अज्ञानका नियमितरूपसे आराधन करनेसे कल्याण नही है वैसे मोहरूप मार्ग अथवा ऐसा इस लोकसम्बन्धी जो मार्ग है वह मात्र ससार है, उसे फिर चाहे जिस आकारमे रखें तो भी ससार है। उस ससारपरिणामसे रहित करनेके लिये अससारगत वाणीका अस्वच्छन्दपरिणामसे जब आधार प्राप्त होता है, तब उस ससारका आकार निराकारताको प्राप्त होता जाता है। वे अपनी दृष्टिके अनुसार दूसरे प्रतिबध किया करते हैं, उसी प्रकार वे अपनी उस दृष्टिसे ज्ञानीके वचनोकी आराधना करें तो कल्याण होने योग्य नही लगता । इसलिये आप वहाँ ऐसा सूचित करें कि आप किसी कल्याणके कारणके नजदीक होनेके उपायकी इच्छा करते हो तो उसके प्रतिबध कम होनेके उपाय करें, और नही तो कल्याणकी तृष्णाका त्याग करें। आप ऐसा समझते हो कि हम जैसे वर्तन करते है वैसे कल्याण है, मात्र अव्यवस्था हो गयी है, वही मात्र अकल्याण है, ऐसा समझते हो तो यह यथार्थ नहीं है। वस्तुत आपका जो वर्तन है, उससे कल्याण भिन्न है, और वह तो जब जब जिस जिस जीवको वैसा वैसा भवस्थित्यादि समीप योग होता है तब तब उसे वह प्राप्त होने योग्य है । सारे समूहमे कल्याण मान लेना योग्य नही है, और यदि ऐसे कल्याण होता हो, तो उसका फल संसारार्थ है, क्योकि पूर्वकालमे ऐसा करके ही जीव ससारी रहता आया है। इसलिये वह विचार तो जब जिसे आना होगा, तब आयेगा । अभी आप अपनी रुचिके अनुसार अथवा आपको जो भासित होता है उसे कल्याण मानकर प्रवृत्ति करते हैं, इस विषयमे सहज, किसो प्रकारके मानकी इच्छाके बिना, स्वार्थकी इच्छाके बिना, आपमे क्लेश उत्पन्न करनेकी इच्छाके बिना मुझे जो कुछ चित्तमे लगता है, वह बताता हूँ।
कल्याण जिस मार्गसे होता है उस मार्गके दो मुख्य कारण देखनेमे आते है । एक तो जिस सप्रदायमे आत्मार्थके लिये सभी असगतावाली क्रियाएँ हो, अन्य किसी भी अर्थ-प्रयोजनकी इच्छासे न हो, और