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२५ वॉ वर्ष
कहनेका हेतु यह है कि सर्व प्रकारका प्रभावयोग आत्मारूप महाभाग्य ऐसे तीर्थंकरमे होना योग्य है, होता है, तथापि उसे अभिव्यक्त करनेका एक अश भी उसमे सगत नही है, स्वाभाविक किसी पुण्यप्रकारवशात् सुवर्णवृष्टि इत्यादि हो, ऐसा कहना असम्भव नही है, और तीर्थकरपदके लिये वह वाधरूप नही है । जो तीर्थंकर हैं, वे आत्मस्वरूपके विना अन्य प्रभावादिको नही करते, और जो करते हैं वे आत्मारूप तीर्थंकर कहने योग्य नहीं है, ऐसा मानते है, ऐसा ही है।
जो जिनकथित शास्त्र माने जाते है, उनमे अमुक बोलोका विच्छेद हो जानेका कथन है, और उनमे केवलज्ञानादि दस बोल मुख्य है, और उन दस बोलोका विच्छेद दिखानेका आशय यह बताना है कि इस कालमे 'सर्वथा मोक्ष नही होता।' वे दस बोल जिसे प्राप्त हो अथवा उनमेसे एक बोल प्राप्त हो तो उसे चरमशरीरी जीव कहना योग्य है, ऐसा समझकर उस बातको विच्छेदरूप माना है, तथापि वैसा एकात ही कहना योग्य नही है ऐसा हमे प्रतीत होता है, ऐसा ही है। क्योकि क्षायिक समकितका इनमे निषेध है, वह चरमशरीरीको ही हो, ऐसा तो सगत नही होता, अथवा ऐसा एकात नही है । महाभाग्य श्रेणिक क्षायिकसमकिती होते हुए भी चरमशरीरी नही थे, ऐसा उन्ही जिनशास्त्रोमे कथन है । जिनकल्पीविहार व्यवच्छेद, ऐसा श्वेताम्बरका कथन है, दिगम्बरका कथन नहीं है। 'सर्वथा मोक्ष होना' ऐसा इस कालमे सम्भव नही है, ऐसा दोनोका अभिप्राय है, वह भी अत्यन्त एकातरूपसे नही कहा जा सकता। मान लें कि चरमशरीरोपन इस कालमे नही है, तथापि अशरीरीभावसे आत्मस्थिति है तो वह भावनयसे चरमशरीरीपन नही, अपितु सिद्धत्व है, और यह अशरीरीभाव इस कालमें नही है ऐसा यहाँ कहे तो इस कालमे हम खुद नहीं हैं, ऐसा कहने तुल्य है । विशेष क्या कहे ? यह केवल एकात नहीं है। कदाचित् एकात हो तो भी जिसने आगम कहे है, उसी आशयवाले सत्पुरुषसे वे समझने योग्य हैं, और वही आत्मस्थितिका उपाय है । यही विनती । गोशलियाको यथायोग्य ।
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बबई, आसोज वदी ६, १९४८ यहाँ आत्माकारता रहती है, आत्माका आत्मस्वरूपरूपसे परिणामका होना उसे आत्माकारता कहते है।
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बबई, आसोज वदी ८, १९४८
लोकव्यापक अन्धकारमे स्वयप्रकाशित ज्ञानीपुरुष ही यथातथ्य देखते है । लोककी शब्दादि कामनाओंके प्रति देखते हुए भी उदासीन रहकर जो केवल अपनेको ही स्पष्टरूपसे देखते है, ऐसे ज्ञानीको नमस्कार करते है, और अभी इतना लिखकर ज्ञानसे स्फुरित आत्मभावको तटस्थ करते हैं । यही विनती।
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बबई, आसोज, १९४८
जो कुछ उपाधि की जाती है, वह कुछ 'अस्मिता' के कारण करनेमे नही आती, तथा नही की जातो । जिस कारणसे की जाती है, वह कारण अनुक्रमसे वेदन करने योग्य ऐसा प्रारब्ध कर्म है । जो कुछ उदयमे आता है उसका अविसवाद परिणामसे वेदन करना, ऐसा जो ज्ञानीका बोधन है वह हममे निश्चल है, इसलिये उस प्रकारसे वेदन करते हैं। तथापि इच्छा तो ऐसी रहती है कि अल्पकालमे, एक समयमे यदि वह उदय असत्ताको प्राप्त होता हो, तो हम इन सबमेसे उठकर चले जायें, इतना आत्माको अवकाश रहता है। तथापि निद्राकाल', भोजनकाल तथा अमुक अतिरिक्त कालके सिवाय उपाधिका प्रसग रहा करता है, और कुछ भिन्नातर नहीं होता, तो भी आत्मोपयोग किसी प्रसगमे भी अप्रधानभाव