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२६ वाँ वर्ष
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बबई, कार्तिक सुदी, १९४९ धर्मसम्बन्धी पत्रादि व्यवहार भी बहुत कम रहता है, जिससे आपके कुछ पत्रोकी पहुँच मात्र लिखी जा सकी है।
जिनागममे इस कालको जो 'दुषम' संज्ञा कही है, वह प्रत्यक्ष दिखायी देती है, क्योकि 'दुषम' शब्दका अर्थ 'दु खसे प्राप्त होने योग्य' ऐसा होता है । वह दु खसे प्राप्त होने योग्य तो मुख्यरूपसे एक परमार्थमार्ग ही कहा जा सकता है, और वैसी स्थिति प्रत्यक्ष देखनेमे आती है । यद्यपि परमार्थ मार्गंकी दुर्लभता तो सर्वकालमे है, परन्तु ऐसे कालमे तो विशेषत काल भी दुर्लभताका कारणरूप है ।
यहाँ कहनेका हेतु ऐसा है कि अधिकतर इस क्षेत्रमे वर्तमान कालमे जिसने पूर्वकालमे परमार्थमार्गका आराधन किया है, वह देह धारण न करे, ओर यह सत्य है, क्योकि यदि वैसे जीवोका समूह इस क्षेत्रमे देहधारीरूपसे रहता होता, तो उन्हे और उनके समागममे आनेवाले अनेक जीवोको परमार्थमार्गकी प्राप्ति सुखपूर्वक हो सकती होती, और इससे इस कालको 'दुषम' कहनेका कारण न रहता। इस प्रकार पूर्वाराधक जीवोको अल्पता इत्यादि होनेपर भी वर्तमान कालमे यदि कोई भी जीव परमार्थमार्गका आराधन करना चाहे तो अवश्य आराधन कर सकता है, क्योकि दु.खपूर्वक भी इस कालमे परमार्थमार्ग प्राप्त होता है, ऐसा पूर्वज्ञानियोका कथन है ।
वर्तमान कालमे सव जोवोको मार्ग दुखसे ही प्राप्त होता है, ऐसा एकात अभिप्राय विचारनही है, प्राय वैसा होता है ऐसा अभिप्राय समझना योग्य है। उसके बहुत से कारण प्रत्यक्ष दिखायो देते हैं ।
प्रथम कारण --- ऊपर यह बताया है कि प्रायः पूर्व की आराधकता नही है । दूसरा कारण - वैसी आराधकता न होनेके कारण वर्तमानदेहमे उस आराधकमार्गकी रीति भो प्रथम समझमे न हो, जिससे अनाराधकमार्गको आराधकमार्ग मानकर जीवने प्रवृत्ति की होती है । तीसरा कारण - प्राय कही ही सत्समागम अथवा सद्गुरुका योग हो, और वह भी क्वचित् हो । चौथा कारण-अमत्सगादि कारणोसे जीवको सद्गुरु आदिको पहचान होना भो दुष्कर है, और प्रायः असद्गुरु आदिमे सत्य प्रतीति मानकर जीव वही रुका रहता है ।
पांचवां कारण - क्वचित् मत्ममागमका योग हो तो भी बल, वीर्य आदिकी ऐसी शिथिलता कि जीव तथारूप मार्ग ग्रहण न कर मके अथवा समझ न सके, अथवा असत्समागमादिसे या अपनो कल्पनासे मय्यामे सत्यरूपसे प्रतीति की हो ।