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श्रीमद् राजचन्द्र निवृत्तिको, समागमको अनेक प्रकारसे चाहते है, क्योकि इस प्रकारका जो हमारा राग है उसे हमने सर्वथा निवृत्त नही किया है।
कालका कलिस्वरूप चल रहा है, उसमे जो अविषमतासे मार्गकी जिज्ञासाके साथ, वाकी दूसरे जो अन्य जाननेके उपाय हैं उनके प्रति उदासीनता रखता है वह ज्ञानीके समागममे अत्यन्त शीघ्रतासे कल्याण पाता है, ऐसा जानते है।
कृष्णदासने जगत, ईश्वरादि सम्बन्धी जो प्रश्न लिखे हैं वे हमारे अति विशेप समागममे समझने योग्य है। इस प्रकारका विचार ( कभी कभी ) करनेमे हानि नही है। उनके यथार्थ उत्तर कदाचित् अमुक काल तक प्राप्त न हो तो इससे धीरजका त्याग करनेके प्रति जाती हुई मतिको रोकना योग्य है।
अविषमतासे जहाँ आत्मध्यान रहता है ऐसे 'श्रीरायचन्द्र' के प्रति बार-बार नमस्कार करके यह पत्र अब पूरा करते है।
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बम्बई, वैशाख, १९४८ योग असंख जे जिन कह्या, घटमांही रिद्धि दाखी रे।
नव पद तेमज जाणजो, आतमराम छे साखी रे॥ आत्मस्थ ज्ञानी पुरुष ही सहजप्राप्त प्रारब्धके अनुसार प्रवृत्ति करते हैं। वास्तविकता तो यह है कि जिस कालमे ज्ञानसे अज्ञान निवृत्त हुआ उसी कालमे ज्ञानी मुक्त है। देहादिमे अप्रतिबद्ध है । सुख दुख हर्ष शोकादिमे अप्रतिवद्ध है। ऐसे ज्ञानीको कोई आश्रय या आलम्बन नही है। धीरज प्राप्त होनेके लिये उसे 'ईश्वरेच्छादि' भावना होना योग्य नही है। भक्तिमानको जो कुछ प्राप्त होता है, उसमे कोई क्लेशका प्रकार देखकर तटस्थ धीरज रहनेके लिये वह भावना किसी प्रकारसे योग्य है। ज्ञानीके लिये 'प्रारब्ध' 'ईश्वरेच्छादि' सभी प्रकार एक ही भावके-सरीखे भावके है। उसे साता-असातामे कुछ किसी प्रकारसे रागद्वेषादि कारण नही हैं। वह दोनोमे उदासीन है। जो उदासीन है वह मूल स्वरूपमें निरालम्बन है । उसकी निरालम्बन उदासीनताको ईश्वरेच्छासे भी बलवान समझते हैं ।
___'ईश्वरेच्छा' शब्द भी अर्थान्तरसे जानने योग्य है। ईश्वरेच्छारूप आलम्बन' आश्रयरूप भक्तिके लिये योग्य है। निराश्रय ज्ञानीको तो सभी समान है अथवा ज्ञानी सहज परिणामी है, सहजस्वरूपी है, सहजरूपसे स्थित है, सहजरूपसे प्राप्त उदयको भोगते है। सहजरूपसे जो कुछ होता है, वह होता है, जो नही होता वह नही होता है । वे कर्तव्यरहित है, उनका कर्तव्यभाव विलीन हो चुका है। इसलिये आपको यह जानना योग्य हे कि उन ज्ञानीके स्वरूपमे प्रारब्धके उदयकी सहज प्राप्ति अधिक योग्य है। ईश्वरमे किसी प्रकारसे इच्छा स्थापित कर उसे इच्छावान कहना योग्य है । ज्ञानी इच्छारहित या इच्छासहित यों कहना भी नही बनता, वे तो सहजस्वरूप है ।
३७८ ... बबई, जेठ सुदी १०, रवि, १९४८ ईश्वरादि सम्बन्धी जो निश्चय है, तत्सम्बन्धी विचारका अभी त्याग करके सामान्यतः 'समयसार का अध्ययन करना योग्य है, अर्थात् ईश्वरके आश्रयसे अभी धीरज रहती है, वह धीरज उसके विकल्पमे पड़नेसे रहनी विकट है।
१ भावार्थ-जिनेन्द्र भगवानने मुक्तिके लिये असख्य योग-साधन बताये हैं। समस्त प्रकारकी सिद्धियोकी सपत्ति आत्मामें ही रही हुई है, ऐसा कहा है। उसी प्रकार नव पदकी सपत्ति भी आत्मामें ही रही हुई है, जिसका साक्षी आत्मा स्वयमेव है।