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२५ वॉ वर्ष
३४५ वम्बई, श्रावण सुदी १०, बुध, १९४८
ॐ नमः आत्मरूप श्री सुभाग्यके प्रति,
निष्काम यथायोग्य ।
जिन उपार्जित कर्मोंको भोगते हुए भावीमे बहुत समय व्यतीत होगा, वे बलपूर्वक उदयमे आकर क्षीण होते हो तो वैसा होने देना योग्य है, ऐसा अनेक वर्षोंका सकल्प है।
व्यावहारिक प्रसग सम्बन्धी चारो तरफसे चिन्ता उत्पन्न हो, ऐसे कारण देखकर भी निर्भयता, आश्रय रखना योग्य है । मार्ग ऐसा है।
अभी हम विशेष कुछ लिख नही सकते, इसके लिये क्षमा मांगते है और निष्कामतासे स्मृतिपूर्वक नमस्कार करते हैं । यही विनती।
'नागर सुख पामर नव जाणे, वल्लभ सुख न कुमारी, अनुभव विण तेम ध्यान तणु सुख, कोण जाणे नर नारी रे, भविका०
मन महिला, रे वहाला उपरे, बीजां काम फरंत ।
बम्बई, श्रावण सुदी १०, बुध, १९४८ केवल निष्काम यथायोग्य ।
यहाँ उपाधियोगमे है, ऐसा समझकर पत्रादि भेजनेका काम नहीं किया होगा, ऐसा समझते हैं । शास्त्रादि विचार और सत्कथा-प्रसगमे वहाँ कैसे योगसे रहना होता है ? सो लिखियेगा।
'सत्' एक प्रदेश भी दूर नहीं है, तथापि उसकी प्राप्तिमे अनत अतराय-लोकानुसार प्रत्येक ऐसे रहे हैं। जीवका कर्तव्य यह है कि अप्रमत्ततासे उस 'सत्' का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करनेका अखड निश्चय रखे।
आप सबको निष्कामतासे यथायोग्य ।
३९२ बबई, श्रावण सुदी १०, बुध, १९४८ हे राम | जिस अवसरपर जो प्राप्त हो उसमे सन्तुष्ट रहना, यह सत्पुरुषोका कहा हुआ सनातन धर्म है, ऐसा वसिष्ठ कहते थे।
३९३ बबई, श्रावण सुदी १०, वुध, १९४८ मन महिलानु रे वहाला उपरे, वीजा काम करत ।
तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ धरे, ज्ञानाक्षेपकवत ॥ जिसमे मनकी व्याख्या विषयमे लिखा हे वह पत्र, जिसमे पीपल-पानका दृष्टात लिखा हे वह पत्र, जिसमे 'यमनियम संयम आप कियो' इत्यादि काव्यादिके विषयमे लिखा है वह पत्र, जिसमे मनादिका निरोध करते हुए शरीरादि व्यथा उत्पन्न होने सम्बन्धी सुचन है वह पत्र, और उसके बाद एक सामान्य, इस तरह सभी पत्र मिले है। उनमे मुख्य भक्तिसम्बन्धी इच्छा, मूर्तिका प्रत्यक्ष होना, इस बात सम्बन्धी प्रधान वाक्य पढा है, ध्यानमे है। २. भावार्थके लिये देखे आक ३११
२. विशेषार्थ के लिये देखें आफ ३९४