________________
२५ वाँ वर्ष
३४७
ऐसे अर्थसे भरे हुए ये दो पद है, वे पद तो भक्ति प्रधान है, तथापि उस प्रकारसे गूढ आशयमे जीवका निदिध्यासन न हो तो क्वचित् अन्य ऐसा पद ज्ञानप्रधान जैसा भासित होता है, और आपको भासित होगा ऐसा जानकर उस दूसरे पदका वैसा भास बाधित करनेके लिये पत्र पूर्ण करते हुए फिर मात्र प्रथमका एक ही पद लिखकर प्रधानरूपसे भक्तिको बताया है |
भक्तिप्रधान दशामे रहनेसे जीवके स्वच्छंदादि दोष सुगमतासे विलय होते हैं, ऐसा ज्ञानी- पुरुषोका प्रधान आशय है ।
यदि जीवमे अल्प भी निष्काम भक्ति उत्पन्न हुई होती है तो वह अनेक दोषोंसे निवृत्त करनेके लिये योग्य होती है । अल्प ज्ञान अथवा ज्ञानप्रधानदशा असुगम मार्गके प्रति, स्वच्छदादि दोषके प्रति, अथवा पदार्थसम्बन्धी भ्रान्तिके प्रीत ले जाता है, बहुत करके ऐसा होता है, उसमे भी इस कालमे तो बहुत काल तक जीवनपर्यन्त भी जीवको भक्तिप्रधानदशाकी आराधना करना योग्य है, ऐसा निश्चय ज्ञानियोने किया ज्ञात होता है । (हमे ऐसा लगता है, और ऐसा ही है | )
हृदयमे जो मूर्तिसम्बन्धी दर्शन करनेकी आपकी इच्छा है, उसे प्रतिबन्ध करनेवाली प्रारब्ध स्थिति ( आपकी ) है, और उस स्थितिके परिपक्व होनेमे अभी देर है । और उस मूर्तिको प्रत्यक्षतामे तो अभी गृहाश्रम है, और चित्रपटमे सन्यस्ताश्रम है, यह एक ध्यानका दूसरा मुख्य प्रतिबन्ध है । उस मूर्तिसे उस आत्मस्वरूप पुरुषकी दशा पुन पुन उसके वाक्यादिके अनुसधानमे विचारणीय है, ओर उसका उस हृदयदर्शनसे भी बडा फल है। इस बातको यहाँ सक्षिप्त करना पडता है ।
'भृगी ईलिकाने चटकावे, ते भृगी जग जोवे रे ।'
यह पद्य परपरागत है । ऐसा होना किसी प्रकारसे सभव है, तथापि उसे प्रोफेसरके गवेषणके अनुसार मानें कि वैसा नही होता, तो भी इसमे कोई हानि नही है, क्योकि दृष्टात वैसा प्रभाव उत्पन्न करने योग्य है, तो फिर सिद्धातका ही अनुभव या विचार कर्तव्य है । प्रायः इस दृष्टातसवधी किसी को ही विकल्प होगा । इसलिये यह दृष्टात मान्य है, ऐसा लगता है । लोकदृष्टिसे अनुभवगम्य है, इसलिये सिद्धान्तमे उसकी प्रबलता समझकर महापुरुष यह दृष्टात देते आये हैं और हम किसी प्रकारसे वैसा होना सभव भी समझते है । एक समयके लिये भी कदाचित् वह दृष्टात सिद्ध न हो ऐसा प्रमाणित हो, तो भी तीनो कालमे निराबाध, अखण्ड- सिद्ध ऐसी बात उसके सिद्धान्तपदकी तो है ।
"जिन स्वरूप थई जिन आराधे, ते सही जिनवर होवे रे ।'
आनन्दघनजी और अन्य सभी ज्ञानी पुरुष ऐसे हो कहते है, और जिनेन्द्र कुछ अन्य ही प्रकार कहते है कि अनन्त बार जिनसबधी भक्ति करनेपर भी जोवका कल्याण नही हुआ, जिनमार्गमे अपनेको माननेवाले स्त्रीपुरुष ऐसा कहते है कि हम जिनेंद्रकी आराधना करते हैं, ओर उसकी आराधना करने जाते हैं, अथवा आराधनाके उपाय अपनाते हैं, वैसा होनेपर भी वे जिनवर हुए दिखायी नही देते। तीनो कालमे अखण्ड ऐसा यह सिद्धान्त यहाँ खडित हो जाता है, तब यह बात विकल्प करने योग्य क्यो नही ?
बम्बई, श्रावण वदी, १९४८
३९५ జ
'तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ घरे, ज्ञानाक्षेपकवंत'
जिसका विचारज्ञान विक्षेपरहित हुआ है, ऐसा 'ज्ञानाक्षेपकवत' आत्मकल्याणकी इच्छावाला पुरुष हो वह ज्ञानीमुख से श्रवण किये हुए आत्मकल्याणरूप धर्ममे निश्चल परिणामसे मनको धारण करता है, यह सामान्य भाव उपर्युक्त पदका है ।
१ देखे आक ३८७ अर्थके लिये ।