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श्रीमद् राजचन्द्र हो, और उन्हे क्लेशरूप भासित हो, इसमे कुछ आश्चर्य नही, ऐमा समझकर ऊपर प्रदर्शित अंतरंग भावनासे उनके प्रति बर्ताव करना, और किसी प्रकारसे भी उन्हे आपसम्बन्धी क्लेशका कम कारण प्राप्त हो, ऐसा विचार करना इस मार्गमे योग्य माना गया है।
फिर एक और सूचना स्पष्टरूपसे लिखना योग्य प्रतीत होता है, इसलिये लिखते हैं। वह यह है कि हमने पहिले आप इत्यादिको बताया था कि यथासंभव हमारे सबधी दूसरे जीवोंसे कम बात करना। इस अनुक्रममे बर्ताव करनेके ध्यानका विसर्जन हुआ हो तो अब फिरसे स्मरण रखना। हमारे सम्बन्धमे और हमारे कहे या लिखे हुए वाक्योके सम्बन्धमे ऐसा करना योग्य है, और अभी इसके कारणोको आपको स्पष्ट बताना योग्य नही है । तथापि यदि अनुक्रमसे अनुसरण करनेमे उसका विसर्जन होता हो तो दूसरे जीवोको क्लेशादिका कारण हो जाता है, यह भी अब 'क्षायिककी चर्चा' इत्यादि प्रसगसे आपके अनुभवमे आ गया है। जो कारण जीवको प्राप्त होनेसे कल्याणका कारण हो उन जीवोको इस भवमे उन कारणोकी प्राप्ति होती हुई रुक जाती है, क्योकि वे तो अपनी अज्ञानतासे न पहचाने हुए सत्पुरुषसम्बन्धी आप इत्यादिसे प्राप्त हुई बातसे वे सत्पुरुषके प्रति विमुखताको प्राप्त होते है, उसके विपयमे आग्रहपूर्वक अन्य अन्य चेष्टाएँ कल्पित करते है, और फिर वैसा योग होनेपर वैसी विमुखता प्रायः प्रबलताको प्राप्त होती है। ऐसा न होने देनेके लिये और इस भवमे यदि उन्हे वैसा योग अज्ञानतासे प्राप्त हो जाये तो कदाचित् श्रेयको प्राप्त करेगे, ऐसी धारणा रखकर, अतरगमे ऐसे सत्पुरुषको प्रगट रखकर बाह्यरूपसे गुप्तता रखना अधिक योग्य है । वह गुप्तता मायाकपट नही है, क्योकि वैसा बर्ताव करना मायाकपटका हेतु नही है, उनके भविष्यकल्याणका हेतु है, जो वैसा होता है वह मायाकपट नही होता, ऐसा समझते है ।
जिसे दर्शनमोहनीय उदयमे प्रबलतासे है, ऐसे जोवको अपनी ओरसे सत्पुरुषादिके विषयमे मात्र अवज्ञापूर्वक बोलनेका प्रसग प्राप्त न हो, इतना उपयोग रखकर बर्ताव करना, यह उसके और उपयोग रखनेवाले दोनोके कल्याणका कारण है ।
ज्ञानीपुरुषकी अवज्ञा बोलना तथा उस प्रकारके प्रसगमे उमगी होना, यह जीवके अनत ससार बढनेका कारण है, ऐसा तीर्थंकर कहते है । उस पुरुषके गुणगान करना, उस प्रसंगमे उमगी होना और उसकी आज्ञामे सरल परिणामसे परम उपयोग-दृष्टिसे वर्तन करना, इसे तीर्थकर अनत ससारका नाश करनेवाला कहते हैं, और ये वाक्य जिनागममे है। बहुतसे जीव इन वाक्योका श्रवण करते होगे, तथापि जिन्होने प्रथम वाक्यको अफल और दूसरे वाक्यको सफल किया हो ऐसे जीव तो क्वचित् ही देखनेमे आते हैं । प्रथम वाक्यको सफल और दूसरे वाक्यको अफल, ऐसा जीवने अनत बार किया है। वैसे परिणाममे आनेमे उसे देर नहीं लगती, क्योकि अनादिकालसे मोह नामकी मदिरा उसके 'आत्मा'मे परिणमित हुई है, इसलिये वारवार विचार कर वैसे वैसे प्रसगमे यथाशक्ति, यथाबलवीर्य ऊपर दर्शित किये हुए प्रकारसे वर्तन करना योग्य है।
'कदाचित् ऐसा मान ले कि 'क्षायिकसमकित इस कालमे नही होता', ऐसा जिनागममे स्पष्ट लिखा है। अब जीवको यह विचार करना योग्य है कि 'क्षायिकसमकितका अर्थ क्या समझना ?' जिसे एक नवकारमत्र जितना भी व्रत, प्रत्याख्यान नही होता, फिर भी वह जीव विशेष तो तीन भवमे और नही तो उसी भवमे परम पदको पाता है, ऐसी महान आश्चर्यकारक तो उस समकितकी व्याख्या है, फिर अब ऐसी वह कौनसी दशा समझना कि जिसे 'क्षायिकसमकित' कहा जाये ? 'भगवान तीर्थंकरमे दृढ श्रद्धा'का नाम यदि 'क्षायिकसमकित' मानें तो वह श्रद्धा कैसी समझना कि जो श्रद्धा हम जानते हैं कि निश्चितरूपसे इस कालमे होती ही नही। यदि ऐसा मालूम नहीं होता कि अमुक दशा या अमुक श्रद्धाको 'क्षायिकसमकित' कहा है, तो फिर वह नही है, ऐसा केवल जिनागमके शब्दोसे जानना हुआ यो कहते हैं। अब ऐसा माने