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श्रीमद् राजचन्द्र है। रुचिमात्र समाधानको प्राप्त हुई है। यह आश्चर्यरूप बात कहाँ कहनी ? आश्चर्य होता है। यह जो देह मिली है वह पूर्व कालमे कभी न मिली हो तो भविष्यकालमे भी प्राप्त होनेवाली नही है । धन्यरूपकृतार्थरूप ऐसे हममे यह उपाधियोग देखकर सभी लोग भूलें, इसमे आश्चर्य नही है । और पूर्वमे यदि सत्पुरुषकी पहचान नही हुई है तो वह ऐसे योगके कारणसे है। अधिक लिखना नही सूझता । नमस्कार पहुंचे । गोशलियाको समपरिणामरूप यथायोग्य और नमस्कार पहुंचे।
समस्वरूप श्री रायचन्द्रके यथायोग्य |
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बम्बई, आषाढ वदी ३०, १९४८ पत्र प्राप्त हुए हैं । अत्र उपाधिनामसे प्रारब्ध उदयरूप है। उपाधिमे विक्षेपरहित होकर व्यवहार करना यह वात अत्यन्त विकट है, जो रहती है वह थोडे कालमे परिपक्व समाधिरूप हो जाती है।
समात्मप्रदेश-स्थितिसे यथायोग्य । शान्तिः
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वम्बई, श्रावण सुदी, १९४८ जीवको स्वस्वरूप जाने बिना छुटकारा नही है, तब तक यथायोग्य समाधि नही है। यह जाननेके लिये मुमुक्षुता और ज्ञानीकी पहचान उत्पन्न होने योग्य है। ज्ञानीको जो यथायोग्यरूपसे पहचानता है वह ज्ञानी हो जाता है क्रमसे ज्ञानी हो जाता है । आनन्दघनजीने एक स्थानपर ऐसा कहा है कि__"जिन थई' 'जिनने' जे आराधे, ते सही जिनवर होवे रे।
भुंगी ईलिकाने चटकावे, ते भुंगी जग जोवे रे॥ जिनेन्द्र होकर अर्थात् सासारिक भाव सम्बन्धी आत्मभाव त्यागकर, जो कोई जिनेन्द्र अर्थात् केवलज्ञानीकी-वीतरागकी आराधना करता है, वह निश्चयसे जिनवर अर्थात् कैवल्यपदसे युक्त हो जाता है । उन्होने भृगी और ईलिकाका ऐसा दृष्टान्त दिया है जो प्रत्यक्ष-स्पष्ट समझमे आता है।
यहाँ हमे भी उपाधियोग रहता है, अन्य भावमे यद्यपि आत्मभाव उत्पन्न नही होता और यही मुख्य समाधि हैं।
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बम्बई, श्रावण सुदी ४, बुध, १९४८ 'जगत जिसमे सोता है, उसमे ज्ञानो जागते हैं, जिसमे ज्ञानी जागते हैं उसमे जगत सोता है । जिसमे जगत जागता है, उसमे ज्ञानी सोते हैं', ऐसा श्रीकृष्ण कहते है।
आत्मप्रदेश समस्थितिसे नमस्कार ।
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बम्बई, श्रावण सुदी १०, बुध, १९४८ असत्सगमे उदासीन रहनेके लिये जीवमे अप्रमादरूपसे निश्चय होता है, तब 'सत्ज्ञान' समझमे आता है, उससे पहले प्राप्त हुए वोधको बहुत प्रकारका अन्तराय होता है । -
जगत और मोक्षका मार्ग ये दोनो एक नही है। जिसे जगतकी इच्छा, रुचि, भावना है उसे मोक्षमे अनिच्छा, अरुचि, अभावना होती है, ऐसा मालूम होता है ।
१ पाठान्तर-जिनस्वरूप थई जिन आराधे
।
२. भगवद्गीता अ० २, श्लोक ६९