________________
३३८
श्रीमद राजचन्द्र चाहे जिस प्रकारसे भी इस लोकलज्जारूप भयके स्थानभूत भविष्यका विस्मरण करना योग्य है। उसकी 'चिन्तासे' परमार्थका विस्मरण होता है। और ऐसा होना महान आपत्तिरूप है, इसलिये वह आपत्ति न आये इतना ही वारवार चिारणीय है। बहुत समयसे आजीविका और लोकलज्जाका खेद आपके अन्तरमे इकट्ठा हुआ है। इस विषयमे अब तो निर्भयता ही अगीकार करना योग्य है। फिर कहते है कि यही कर्तव्य है । यथार्थ बोधका यह मुख्य मार्ग है । इस स्थलमे भूल खाना योग्य नहीं है। लज्जा
और आजीविका मिथ्या हैं । कुटुब आदिका ममत्व रखेंगे तो भी जो होना होगा वही होगा । उसमे समता रखेंगे तो भी जो होना योग्य होगा वही होगा । इसलिये नि शकतासे निरभिमानी होना योग्य है ।
___ समपरिणाममे परिणमित होना योग्य है, और यही हमारा उपदेश है । यह जब तक परिणमित नही होगा तब तक यथार्थ बोध भी परिणमित नही होगा।
भूतकालमें हुई नही है, वर्तमानकालमे होती नही है, भविष्य
कालमे हो नहीं सकती।
३७५
बबई, वैशाख, १९४८ जिनागम उपशमस्वरूप है । उपशमस्वरूप पुरुषोने उपशमर्के लिये उसका प्ररूपण किया है, उपदेश किया है। यह उपशम आत्माके लिये है, अन्य किसी प्रयोजनके लिये नही है। आत्मार्थमे यदि उसका आराधन नही किया गया, तो उस जिनागमका श्रवण एव अध्ययन निष्फलरूप है, यह बात हमे तो निःसदेह यथार्थ लगती है।
दुःखकी निवृत्तिको सभी जीव चाहते है, और दुखकी निवृत्ति, जिनसे दु.ख उत्पन्न होता है ऐसे राग, द्वेष और अज्ञान आदि दोषोकी निवृत्ति हुए बिना, होना संभव नही है। इन राग आदिकी निवृत्ति एक आत्मज्ञानके सिवाय दूसरे किसी प्रकारसे भूतकालमे हुई नही है, वर्तमानकालमें होता नहीं कालमे हो नही सकती। ऐसा सर्व ज्ञानी पुरुषोको भासित हुआ है। इसलिये वह आत्मज्ञान जीवके लिये प्रयोजनरूप है। उसका सर्वश्रेष्ठ उपाय सद्गुरुवचनका श्रवण करना या सत्शास्त्रका विचार करना है। जो कोई जीव दुःखकी निवृत्ति चाहता हो, जिसे दु खसे सर्वथा मुक्ति पानी हो उसे इसी एक मार्गकी आराधना किये बिना अन्य दूसरा कोई उपाय नही है। इसलिये जीवको सर्व प्रकारके मतमतातरसे, कुलधर्मसे, लोकसज्ञारूप धर्मसे और ओघसज्ञारूप धर्मसे उदासीन होकर एक आत्मविचार कर्तव्यरूप धर्मकी उपासना करना योग्य है।
एक बडी निश्चयकी बात तो मुमुक्षु जीवको यही करना योग्य है कि सत्सग जैसा कल्याणका कोई बलवान कारण नहीं है, और उस सत्सगमे निरन्तर प्रति समय निवास चाहना, असत्सगका प्रतिक्षण विपरिणाम विचारना, यह श्रेयरूप है । बहुत बहुत करके यह बात अनुभवमे लाने जैसी है।
यथाप्रारब्ध स्थिति है इसलिये बलवान उपाधियोगमे विषमता नही आती । अत्यन्त ऊब जानेपर भी उपशमका, समाधिका यथारूप रहना होता है, तथापि चित्तमे निरन्तर सत्सगकी भावना रहा करती है। सत्सगका अत्यन्त माहात्म्य पूर्व भवमे वेदन किया है, वह पुनः पुन. स्मृतिमे आता है और निरन्तर अभगरूपसे वह भावना स्फुरित रहा करती है। :
जब तक इस उपाधियोगका उदय है तब तक समतासे उसका निर्वाह करना, ऐसा प्रारब्ध है, तथापि जो काल व्यतीत होता है वह उसके त्यागके भावमे प्रायः बीता करता है।
____ निवृत्तिके योग्य क्षेत्रमे चित्तस्थिरतासे अभी 'सूत्रकृतागसूत्र' के श्रवण करनेकी इच्छा हो तो करनेमे बाधा नही है । मात्र जीवको उपशमके लिये वह करना योग्य है। किस मतकी विशेषता है, किस मतकी न्यूनता है, ऐसे अन्यार्थमे पड़नेके लिये वैसा करना योग्य नही है। उस 'सूत्रकृताग' की रचना जिन पुरुषोने को है, वे आत्मस्वरूप पुरुष थे, ऐसा हमारा निश्चय है।