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२५ वॉ वर्ष
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‘यह कर्मरूप क्लेश जो जीवको प्राप्त हुआ है, वह कैसे दूर हो ?" ऐसा प्रश्न मुमुक्षु शिष्यके मनमे उत्पन्न करके 'वोध प्राप्त करनेसे दूर हो' ऐसा उस 'सूत्रकृताग' का प्रथम वाक्य है । 'वह बन्धन क्या और क्या जाननेसे वह टूटे ?' ऐसा दूसरा प्रश्न वहाँ शिष्यको होना संभव है और उस बन्धनको वीरस्वामीने किस प्रकारसे कहा है ? ऐसे वाक्यसे उस प्रश्नको रखा है, अर्थात् शिष्यके प्रश्नमे उस वाक्यको रखकर ग्रन्थकार यो कहते हैं कि आत्मस्वरूप श्री वीरस्वामीका कहा हुआ तुम्हे कहेंगे क्योकि आत्मस्वरूप पुरुष आत्मस्वरूपके लिये अत्यन्त प्रतीति योग्य है । उसके बाद ग्रन्थकार उस बन्धनका स्वरूप कहते है वह पुन पुन विचार करने योग्य है । तत्पश्चात् इसका विशेष विचार करनेपर ग्रन्थकारको स्मृति हो आयी कि यह समाधिमार्ग आत्माके निश्चयके विना घटित नही होता, और जगतवासी जीवोने अज्ञानी उपदेशकोसे जीवका स्वरूप अन्यथा जानकर, कल्याणका स्वरूप अन्यथा जानकर, अन्यथाका यथार्थतासे निश्चय किया है, उस निश्चयका भग हुए बिना, उस निश्चयमे सदेह हुए बिना, जिस समाधिमार्गका हमने अनुभव किया है वह उन्हे किसी प्रकारसे सुनानेसे कैसे फलीभूत होगा ? ऐसा जानकर ग्रन्थकार कहते है कि 'ऐसे मार्गका त्याग करके कोई एक श्रमण ब्राह्मण अज्ञानतासे, बिना विचारे अन्यथा प्रकारसे मार्ग कहता है', ऐसा कहते थे । उस अन्यथा प्रकारके पश्चात् ग्रन्थकार निवेदन करते हैं कि कोई पचमहाभूतकाही अस्तित्व मानते हैं, और उससे आत्माका उत्पन्न होना मानते हैं, जो घटित नही होता । ऐसे बताकर आत्माकी नित्यताका प्रतिपादन करते हैं । यदि जीवने अपनी नित्यताको नही जाना, तो फिर निर्वाणका प्रयत्न किस लिये होगा ? ऐसा अभिप्राय बताकर नित्यता दिखलायी है । उसके बाद भिन्न-भिन्न प्रकार - कल्पित अभिप्राय प्रदर्शित करके यथार्थं अभिप्रायका बोध देकर यथार्थ मार्गके बिना छुटकारा नही है, गर्भस्थिति दूर नही होती, जन्म दूर नही होता, मरण दूर नही होता, दुख दूर नही होता, आधि, व्याधि और उपाधि कुछ भी दूर नही होते और हम ऊपर जो कह आये है ऐसे सभी मतवादी ऐसे ही विषयो सलग्न हैं कि जिससे जन्म, जरा, मरण आदिका नाश नही होता, ऐसा विशेष उपदेशरूप आग्रह करके प्रथम अध्ययन समाप्त किया है । तत्पश्चात् अनुक्रमसे इससे बढते हुए परिणामसे उपशम-कल्याण- आत्मार्थं का उपदेश दिया है । उसे ध्यानमे रखकर अध्ययन व श्रवण करना योग्य है । कुलधर्मके लिये 'सूत्रकृताग' का अध्ययन, श्रवण निष्फल है ।
बम्बई, वैशाख वदी, १९४८
श्री स्थंभतीर्थवासी जिज्ञासुके प्रति,
श्री मोहमयीसे अमोहस्वरूप ऐसे श्री रायचन्द्रके आत्मसमानभावको स्मृति से यथायोग्य पढियेगा । अभी यहाँ बाह्यप्रवृत्तिका योग विशेषरूपसे रहता है । ज्ञानोको देह उपार्जन किये हुए पूर्वं कर्मों को निवृत्त करने के लिये और अन्यकी अनुकपाके लिये होती है ।
जिस भावसे ससारकी उत्पत्ति होती है, वह भाव जिनका निवृत्त हो गया है, ऐसे ज्ञानी भी बाह्यप्रवृत्तिकी निवृत्ति और सत्समागममे रहना चाहते हैं । उस योगका जहाँ तक उदय प्राप्त न हो वहाँ तक अविषमतासे प्राप्त स्थितिमे रहते हैं, ऐसे ज्ञानीके चरणारविंदकी पुनः पुन स्मृति हो आने से परम विशिष्टभावसे नमस्कार करते है ।
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अभी जिस प्रवृत्तियोगमे रहते हैं वह तो बहुत प्रकारको परेच्छा के कारण से रहते हे । आत्मदृष्टिकी अखण्डता उस प्रवृत्तियोग से बाधाको प्राप्त नही होती । इसलिये उदयमे आये हुए योगकी आराधना करते हैं | हमारा प्रवृत्तियोग जिज्ञासुको कल्याण प्राप्त होनेमे किसी प्रकारसे वाधक है ।
जो सत्स्वरूपमे स्थित है, ऐसे ज्ञानीके प्रति लोक स्पृहादिका त्याग करके जो भावसे भी उनका आश्रित होता है, वह शीघ्र कल्याणको प्राप्त होता है, ऐसा जानते है ।