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श्रीमद राजचन्द्र
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बबई, फागुन सुदी १०, बुध, १९४८
हृदयरूप श्री सुभाग्यके प्रति, भक्तिपूर्वक नमस्कार पहुँचे ।
'अब फिर लिखेंगे, अब फिर लिखेंगे' ऐसा लिखकर अनेक बार लिखना बन नही पाया, सो क्षमा करने योग्य है, क्योकि चित्तस्थिति प्राय विदेही जेसी रहती है, इसलिये कार्यमे अव्यवस्था हो जाती है । अभी जैसी चित्तस्थिति रहती है, वैसी अमुक समय तक चलाये बिना छुटकारा नही है ।
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बहुत बहुत ज्ञानी पुरुष हो गये है, उनमे हमारे जैसे उपाधिप्रसंग और उदासीन, अति उदासीन चित्तस्थितिवाले प्राय अपेक्षाकृत थोडे हुए है । उपाधिप्रसग के कारण आत्मा सबधी विचार अखण्डरूपसे नही हो सकता, अथवा गौणरूपसे हुआ करता है, ऐसा होनेसे बहुत काल तक प्रपचमे रहना पड़ता हैं, और उसमे तो अत्यत उदास परिणाम हो जानेसे क्षणभरके लिये भी चित्त स्थिर नही रह सकता, जिससे ज्ञानी सर्वसंगपरित्याग करके अप्रतिबद्धरूप से विचरण करते है । 'सर्वसग' शब्दका लक्ष्यार्थ है ऐसा सग कि जो अखण्डरूपसे आत्मध्यान, या बोध मुख्यत न रखा सके । हमने यह सक्षेपमे लिखा है, और इस प्रकारकी बाह्य एव अतरसे उपासना करते रहते हैं ।
देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है ऐसा हमारा निश्चल अनुभव है । क्योकि हम भी निश्चयसे उसी स्थितिको प्राप्त करनेवाले हैं, यो हमारा आत्मा अखण्डरूपसे कहता है, और ऐसा ही है, अवश्य ऐसा ही है । पूर्ण वीतरागकी चरणरज निरतर मस्तकपर हो, ऐसा रहा करता है । अत्यंत विकट ऐसा वीतरागत्व अत्यंत आश्चर्यकारक है, तथापि यह स्थिति प्राप्त होती है, सदेह प्राप्त होती है, यह निश्चय है, प्राप्त करनेके लिये पूर्ण योग्य हैं, ऐसा निश्चय है । सदेह ऐसे हुए बिना हमारी उदासीनता दूर हो ऐसा मालूम नही होता और ऐसा होना सम्भव है, अवश्य ऐसा ही है ।
प्रश्नोंके उत्तर प्राय नही लिखे जा सकेंगे, क्योकि चित्तस्थिति जैसी बतायी वैसी रहा करती है । अभी वहाँ कुछ पढना और विचार करना चलता है क्या ? अथवा किस तरह चलता है ? इसे प्रसंगोपात्त लिखियेगा ।
त्याग चाहते है, परन्तु नही होता । वह त्याग कदाचित् आपकी इच्छानुसार करे, तथापि उतना भी अभी तो हो सकना सम्भव नही है ।
अभिन्न बोधमय प्रणाम प्राप्त हो ।
बबई, फागुन सुदी १०, बुध, १९४८
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उदास-परिणाम आत्माको भजा करता है । निरुपायताका उपाय काल है । पूज्य श्री सौभाग्यभाई,
समझनेके लिये जो विवरण लिखा है, वह सत्य है । जव तक ये बाते जीवकी समझमे नही आती, तब तक यथार्थ उदासीन परिणतिका होना भी कठिन लगता है ।
'सत्पुरुष पहचाननेमे क्यो नही आते ?' इत्यादि प्रश्न उत्तरसहित लिख भेजनेका विचार तो होता है, परन्तु लिखनेमे चित्त जैसा चाहिये वैसा नही रहता, और वह भी अल्प काल रहता है, इसलिये निर्धारित लिखा नही जा सकता ।
उदास - परिणाम आत्माको अत्यन्त भजा करता है ।
किसी अर्धजिज्ञासु पुरुषको आठेक दिन पूर्व एक पत्र भेजनेके लिये लिख रखा था । पोछेसे अमुक कारणसे चित्त रुक जानेसे वह पत्र पडा रहने दिया था जिसे पढनेके लिये आपको भेज दिया है।