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२५ वा वर्ष
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बबई, फागुन वदी ४, गुरु, १९४८ यहाँसे कल एक पत्र लिखा है, उसे पढकर चित्तमे अविक्षिप्त रहिये, समाधि रखिये। वह वार्ता चित्तमे निवृत्त करनेके लिये आपको लिखी है, जिसमे उस जीवकी अनुकपाके सिवाय दूसरा हेतु नही है।
हमे तो चाहे जैसे हो तो भी समाधि ही बनाये रखनेकी दृढ़ता रहती है। अपनेपर जो कुछ आपत्ति, विडवना, दुविधा या ऐसा कुछ आ पडे तो उसके लिये किसीपर दोषारोपण करनेकी इच्छा नही होती।
और परमार्थदृष्टिसे देखते हुए तो वह जीवका दोष है। व्यावहारिकदृष्टिसे देखते हुए नही जैसा है, और जीवकी जब तक व्यावहारिकदृष्टि होती है तब तक पारमार्थिक दोषका ख्याल आना बहुत दुष्कर है।
आपके आजके पत्रको विशेषत पढ़ा है। उससे पहलेके पत्रोकी भी बहुतसी प्रश्नचर्चा आदि ध्यानमे है । यदि हो सका तो रविवारको इस विषयमे संक्षेपमे कुछ लिखूगा।
मोक्षके दो मुख्य कारण जो आपने लिखे हैं वे वैसे ही हैं । इस विषयमे विशेप फिर लिखूगा।
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बबई, फागुन वदी ६, शनि, १९४८ यहाँ भावसमाधि तो है । आप जो लिखते हैं वह सत्य है। परन्तु ऐसी द्रव्यसमाधि आनेके लिये पूर्वकर्मोको निवृत्त होने देना योग्य है।
दुषमकालका बड़ेसे बडा चिह्न क्या है ? अथवा दुषमकाल किसे कहा जाता है ? अथवा किन मख्य लक्षणोसे वह पहचाना जा सकता है ? यही विज्ञापन है।
लि० बोधवीज।
बबई, फागुन वदी ७, रवि, १९४८
यहाँ समाधि है। जो समाधि है वह कुछ अशोमे है। और जो हे वह भावसमाधि है।
बबई, फागुन वदी १०, बुध, १९४८
३४४ उपाधि उदयरूपसे रहती है। पत्र आज पहुँचा है । अभी नो परम प्रेमसे नमस्कार पहुँचे। ।
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बंबई, फागुन वदी ११, १९४८ किसी भी प्रकारसे सत्सगका योग हो तो वह करते रहना, यह कर्तव्य है, और जिस प्रकारसे जीवको ममत्व विशेष हुआ करता हो अथवा बढा करता हो उस प्रकारसे यथासम्भव संकोच करते रहना, यह सत्सगमे भी फल देनेवाली भावना है।
बबई, फागुन वदी १४, रवि, १९४८
३४६ सभी प्रश्नोके उत्तर स्थगित रखनेको इच्छा है । पूर्वकर्म शीघ्र निवृत्त हो, ऐसा करते हैं। कृपाभाव रखिये और प्रणाम स्वीकार कीजिये ।