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२५ वो वर्ष जो वस्तुत ज्ञानीको पहचानता है वह ध्यान आदिकी इच्छा नहीं करता, ऐसा हमारा अंतरग अभिप्राय रहता है।
जो मात्र ज्ञानीको चाहता है, पहचानता है और भजता है, वही वैसा होता है, और वह उत्तम मुमुक्षु जानने योग्य है।
उदास परिणाम आत्माको भजा करता है। चित्तकी स्थितिमे यदि विशेषरूपसे लिखा जायेगा तो लिखूगा।
नमस्कार प्राप्त हो।
३३६ बंबई, फागुन सुदी ११, बुध, १९४८ यहाँ भावसमाधि है।
विशेषत: 'वैराग्य प्रकरण' मे श्रीरामने जो अपनेको वैराग्यके कारण प्रतीत हुए सो बताये हैं, वे पुन पुन विचारणीय हैं।
खम्भातसे पत्रप्रसग रखे। उनकी ओरसे पत्र आनेमे ढील होती हो तो आग्रहसे लिखे जिससे वे ढील कम करेंगे । परस्पर कुछ पृच्छा करना सूझे तो वह भी उन्हे लिखें।
३३७ बंबई, फागुन सुदी ११॥, गुरु, १९४८ चि० चदुके स्वर्गवासकी खबर पढकर खेद हुआ । जो जो प्राणी देह धारण करते हैं वे वे प्राणी उस देहका त्याग करते हैं। ऐसा हमे प्रत्यक्ष अनुभवसिद्ध दिखायी देता है, फिर भी अपना चित्त उस देहकी अनित्यताका विचार करके नित्य पदार्थक मार्गमे नही जाता, इस शोचनीय बातका वारंवार विचार करना योग्य है । मनको धैर्य देकर उदासीको निवृत्त किये बिना छुटकारा नही है । खेद न करके धैर्यसे उस दुखको सहन करना हो हमारा धर्म है।
इस देहका भी जब-तब ऐसे ही त्याग करना है, यह बात स्मरणमे आया करती है, और ससारके प्रति वैराग्य विशेष रहा करता है । पूर्वकर्मके अनुसार जो कुछ भी सुखदु.ख प्राप्त हो, उसे समानभावसे वेदन करना, यह ज्ञानीको सीख याद आनेसे लिखी है । मायाको रचना गहन है।।
३३८ बबई, फागुन सुदी १३, शुक्र, १९४८ परिणामोमे अत्यन्त उदासीनता परिणमित होती रहती है।
ज्यो-ज्यो ऐसा होता है, त्यो-त्यो प्रवृत्ति-प्रसग भी बढते रहते है। अनिर्धारित प्रवृत्तिके प्रसग भी प्राप्त हुआ करते हैं, और इससे ऐसा मानते है कि पूर्व निबद्ध कर्म निवृत्त होनेके लिये शीघ्र उदयमे आते हैं।
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' ववई, फागुन सुदी १४, १९४८ किसीका दोष नहीं है, हमने कर्म बाँधे इसलिये हमारा दोष है। ज्योतिपको आम्नाय सम्बन्धी कुछ विवरण लिखा, सो पढ़ा है। उसका बहुतसा भाग ज्ञात है। तथापि चित्त उसमे जरा भी प्रवेश नही कर सकता, और तत्सम्बन्धी पढ़ना व सुनना कदाचित् चमत्कारिक हो, तो भी वोझरूप लगता है । उसमे किंचित् भी रुचि नहीं रही है।