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श्रीमद राजचन्द्र
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सम्यक्त्वकी स्पर्शनाके सम्बन्धमे विशेषरूपसे लिखा जा सके तो लिखियेगा ।
लिखा हुआ उत्तर सत्य है ।
प्रतिवधता दुखदायक है, यही विज्ञापन |
स्वरूपस्य यथायोग्य ।
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बबई, चैत्र वदी १, वुध, १९४८ आत्मसमाधिपूर्वक योग-उपाधि रहा करती है, जिस प्रतिवधके कारण अभी तो कुछ इच्छित काम नही किया जा सकता ।
हृदयरूप
ऐसे ही हेतुके कारण श्री ऋषभ आदि ज्ञानियोने शरीर आदिकी प्रवर्तनाके भानका भी त्याग
किया था ।
समस्थितभाव ।
बबई, चैत्र वदी ५, रवि, १९४८
श्री सुभाग्य,
आपके एकके बाद एक बहुतसे सविस्तर पत्र मिला करते हैं, जिनमे प्रसगोपात्त शीतल ज्ञानवार्ता भी आया करती है । परंतु खेद होता है कि उस विपयमे प्राय हमसे अधिक लिखना नही हो सकता । सत्सग होनेके प्रसगकी इच्छा करते हैं, परतु उपाधियोगके उदयका भी वेदन किये विना उपाय नही है । चित्त बहुत बार आपमे रहा करता है । जगतमे दूसरे पदार्थं तो हमारे लिये कुछ भी रुचिकर नही रहे है । जो कुछ रुचि रही है वह मात्र एक सत्यका ध्यान करनेवाले सन्तमे, जिसमे आत्माका वर्णन हे ऐसे सत्शास्त्रमे, और परेच्छासे परमार्थके निमित्तकारण ऐसे दान आदिमे रही है । आत्मा तो कृतार्थ प्रतीत होता है ।
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बबई, चैत्र, वदी १, वुध, १९४८
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हृदयरूप सुभाग्य,
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ववई, चैत्र वदी ५, रवि, १९४८
जगत अभिप्रायको ओर देखकर जोवने पदार्थका बोध पाया है । ज्ञानीके अभिप्रायकी ओर देखकर पाया नही है । जिस जीवने ज्ञानीके अभिप्रायसे बोध पाया है उस जीवको सम्यग्दर्शन होता है ।
'विचारसागर' अनुक्रमले ( प्रारंभसे अन्त तक) विचार करनेका अभ्यास अभी हो सके तो करना योग्य है ।
हम दो प्रकारका मार्ग जानते हैं। एक उपदेशप्राप्तिका मार्ग और दूसरा वास्तविक मार्ग | 'विचारसागर' उपदेशप्राप्तिर्के लिये विचारणीय है ।
जब हम जैनशास्त्र पढनेके लिये कहते हैं तव जैनी होनेके लिये नही कहते, जव वेदातशास्त्र पढ़नेके लिये कहते है, तब वॆदाती होनेके लिये नही कहते, इसी तरह अन्य शास्त्र पढ़नेके लिये कहते हैं तो अन्य हो लिये नही कहते, मात्र जो कहते हैं वह आप सबको उपदेश लेनेके लिये कहते है । जैनी और वेदात आदिके भेदका त्याग करें । आत्मा वैसा नही है ।
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ववई, चैत्र वदी ८, १९४८
आज एक पत्र प्राप्त हुआ हे ।
पत्र पढनेसे और वृत्तिज्ञानसे, अभी आपको कुछ ठीक तरहसे धोरजवल रहता है यह जानकर सन्तोष हुआ है ।