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२५ वा वर्ष
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आज दिन तक आयी हो यह याद नही आता । आपकी चिता जानते हैं, और हम उस चिताके किसी भी भागको यथाशक्ति वेदन करना चाहते हैं । परन्तु ऐसा तो कभी भूतकालमे हुआ नही है, तो अब कैसे हो सकता है ? हमे भी उदयकाल ऐसा रहता है कि अभी ऋद्धियोग हाथमे नही है ।
प्राणीमात्र प्राय आहार, पानी पा लेते है। तो आप जैसे प्राणीके कुटुम्बके लिये उससे विपरीत परिणाम आये ऐसा मानना योग्य ही नही है। कुटुम्बकी लाज वारवार आड़े आकर जो आकुलता उत्पन्न करती है, उसे चाहे तो रखें और चाहे तो न रखें, दोनो समान हैं, क्योकि जिसमे अपनी निरुपायता है उसमे तो जो हो उसे योग्य ही मानना, यही दृष्टि सम्यक् है । जो लगा वह बताया है।
हमे जो निर्विकल्प नामकी समाधि है वह तो आत्माकी स्वरूपपरिणति रहनेके कारण है । आत्माके स्वरूपसबंधी तो हमे प्राय. निर्विकल्पता ही रहना सभव है, क्योकि अन्यभावमे मुख्यत. हमारी प्रवृत्ति ही नही है।
बध-मोक्षकी यथार्थ व्यवस्था जिस दर्शनमे यथार्थरूपसे कही गयी है, वह दर्शन निकट मुक्तिका । कारण है, और इस यथार्थ व्यवस्थाको कहने योग्य यदि किसीको हम विशेषरूपसे मानते हो तो वे श्री तीर्थंकरदेव हैं।
__ और आज इस क्षेत्रमे श्री तीर्थकरदेवका यह आतरिक आशय प्रायः मुख्यरूपसे यदि किसीमे हो । तो वे हम होगे ऐसा हमे दृढतापूर्वक भासित होता है।
____ क्योकि हमारे अनुभवज्ञानका फल वीतरागता है, और वीतरागका कहा हुआ श्रुतज्ञान भी उसी । परिणामका कारण लगता है, इसलिये हम उनके वास्तविक और सच्चे अनुयायी है।
वन और घर ये दोनो किसी प्रकारसे हमे समान हैं, तथापि पूर्ण वीतरागभावके लिये वनमे रहना । अधिक रुचिकर लगता है, सुखकी इच्छा नही है परन्तु वीतरागताकी इच्छा है।
जगतके कल्याणके लिये पुरुषार्थ करनेके बारेमे लिखा तो वह पुरुषार्थ करनेकी इच्छा किसी प्रकारसे : रहती भी है, तथापि उदयके अनुसार चलना यह आत्माकी सहज दशा हुई है, और वैसा उदयकाल अभी समीपमे दिखायी नही देता, और उसकी उदीरणा की जाये ऐसी दशा हमारी नही है।
'भीख मांगकर गुजरान चलायेंगे परन्तु खेद नही करेंगे, ज्ञानके अनत आनन्दके आगे वह दुख तृण मात्र है' इस भावार्थका जो वचन लिखा है उस वचनको हमारा नमस्कार हो । ऐसा वचन सच्ची योग्यताके बिना निकलना सभव नही है।
"जीव यह पौद्गलिक पदार्थ नही है, पुद्गल नही है, और पुद्गलका आधार नही है, उसके रगवाला नहीं है, अपनी स्वरूपसत्ताके सिवाय जा अन्य हे उसका स्वामी नही है, क्योकि परका ऐश्वर्य स्वरूपमे नही होता। वस्तुधर्मसे देखते हुए वह कभी भी परसगी भी नही है।" इस प्रकार सामान्य अर्थ 'जीव नवि पुग्गली' इत्यादि पदोका है।
"दुःखसुखरूप करम फळ जाणो, निश्चय एक आनंदो रे। चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिनचदो रे ॥"
(श्री वासुपूज्य स्तवन-आनन्दघनजी)
१ भावार्थ-हे भन्यो । दुख और सुख दोनोको कर्मका फल जाने। यह व्यवहारनयकी अपेक्षासे हे ओर निश्चयनयसे तो आत्मा आनदमय ही है। जिनेश्वर कहते हैं कि आत्मा कभी भी चेतन ताके परिणामको नहीं छोडता ।