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२५ वॉ वर्ष
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देहादिकसे जो परिणाम होता है उसका पुद्गल कर्त्ता है, क्योकि देहादि जड है, और जडपरिणाम तो पुद्गलमे होता है । जब ऐसा ही है तो फिर जीव भी जीवस्वरूपमे ही रहता है, इसमे अब किसी दूसरे प्रमाणकी जरूरत नही है, ऐसा मानकर कहते हैं कि -
'चिदानंद चेतन सुभाव आचरतु है।'
काव्य कर्त्ता कहनेका हेतु यह है कि यदि आप इस तरह वस्तुस्थितिको समझें तो जडसबंधी जो स्वस्वरूपभाव है वह मिटे और स्वस्वरूपका जो तिरोभाव हैं वह प्रगट हो । विचार करें तो स्थिति भी ऐसी ही है । अति गन बातको यहां संक्षेपमे लिखा है । (यद्यपि ) जिसे यथार्थं बोध है उसे तो सुगम है ।
इस बातका अनेक बार मनन करनेसे कुछ बोध हो सकेगा ।
आपका एक पत्र परसो मिला था। आपको पत्र लिखनेका मन तो होता है, परन्तु जो लिखनेका सूझता है वह ऐसा सूझता है कि आपको उस बातका बहुत समय तक परिशीलन होना चाहिये, और वह विशेष गहन होता है । इसके सिवाय लिखना नही सूझता । अथवा लिखनेमे मन नही लगता । बाकी तो नित्य समागमकी इच्छा करते है ।
प्रसंगोपात्त कुछ ज्ञानवार्ता लिखियेगा | आजीविकाके दु खके लिये आप जो लिखते हैं वह सत्य है । चित्त प्राय वनमें रहता है, आत्मा तो प्रायः मुक्तस्वरूप लगता है । वीतरागता विशेष है । बेगारभाँति प्रवृत्ति करते हैं, दूसरोका अनुसरण भी करते हैं । जगतसे बहुत उदास हो गये हैं । वस्तीसे तग आ गये हैं । किसीको दशा बता नही सकते । बताने जैसा सत्सग नही है, मनको जैसे चाहे वैसे मोड सकते हैं, इसलिये प्रवृत्तिमे रह सके हैं। किसी प्रकारसे रागपूर्वक प्रवृत्ति न होती हो ऐसी दशा है, ऐसा रहता है । लोकपरिचय अच्छा नही लगता । जगतमे चैन नही पडता ।
अधिक क्या लिखें ? आप जानते हैं । यहाँ समागम हो ऐसी तो इच्छा करते है, तथापि किये हुए कर्मोकी निर्जरा करनी है, इसलिये उपाय नही है ।
लि० यथार्थ बोधस्वरूपके यथायोग्य ।
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बबई, पौष वदी १३, गुरु, १९४८
दूसरे काम प्रवृत्ति करते हुए भी अन्यत्वभावनासे प्रवृत्ति करनेका अभ्यास रखना योग्य है । वैराग्य भावनासे भूषित 'शातसुधारस' आदि ग्रन्थ निरतर चिंतन करने योग्य हैं । प्रमादमे वैराग्यकी तीव्रता, मुमुक्षुता मद करने योग्य नही है, ऐसा निश्चय रखना योग्य है ।
श्री बोधस्वरूप ।
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बबई, माघ सुदी ५, बुध, १९४८ साधारण हो गया है। दीर्घकाल तक अन्यभावकी साधारणता दूर होती है,
अनंतकालसे स्वरूपका विस्मरण होनेसे जीवको अन्यभाव सत्सगमे रहकर वोधभूमिकाका सेवन होनेसे वह विस्मरण और अर्थात् अन्यभावसे उदासीनता प्राप्त होती हैं । यह काल विषम होनेसे स्वरूपमे तन्मयता रहना दुष्कर है, तथापि सत्सगका दीर्घकाल तक सेवन उस तन्मयताको देता है इसमे सदेह नही होता ।
जीवन अल्प है और जजाल अनत है, धन सीमित है, और तृष्णा अनत है; इस स्थितिमे स्वरूपस्मृतिका सभव नही है | परन्तु जहाँ जजाल अल्प है, और जीवन अप्रमत्त है, तथा तृष्णा अल्प है अथवा नही है, और सर्व सिद्धि है, वहाँ पूर्ण स्वरूपस्मृति होना सभव है । अमुल्य ऐसा ज्ञानजीवन प्रपचसे आवृत होकर चला जाता है । उदय बलवान है !