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धीमद् राजचन्द्र
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इच्छा है तो फिर बंधता है क्यो ? इस विकल्पको निवृत्ति इतनी ही है कि ऐसा अनुभव हुआ है कि जिसे छूटनेकी दृढ इच्छा होती है उसे बन्धनका विकल्प मिट जाता है, और यह इस बातका सत्साक्षी है ।
एक ओर तो परमार्थमार्गको शीघ्रतासे प्रगट करनेकी इच्छा है, और एक ओर अलख 'लय' मे समा जानेकी इच्छा रहती है । अलख 'लय' मे आत्मासे समावेश हुआ है, योगसे करना यह एक रटन है। परमार्थके मार्गको बहुतसे मुमुक्षु प्राप्त करे, अलख समाधि प्राप्त करें तो अच्छा, और इसके लिये कितना हो मनन है । दीनबन्धुकी इच्छानुसार हो रहेगा। ।
अद्भुत दशा निरन्तर रहा करती है। अवधूत हुए हैं, अवधूत करनेके लिये कई जीवोके प्रति दृष्टि है। __ महावीरदेवने इस कालको पचमकाल कहकर दुषम कहा, व्यासने कलियुग कहा; यो बहुतसे महापुरुषोने इस कालको कठिन कहा है, यह बात नि.शक सत्य है । क्योकि भक्ति और सत्संग विदेश गये हैं अर्थात् सम्प्रदायोमे नही रहे और ये प्राप्त हुए बिना जीवका छुटकारा नही है। इस कालमे प्राप्त होने दुष्कर हो गये है, इसलिये काल भी दुषम है। यह बात यथायोग्य ही है। दुषमको कम करनेके लिये आशिष दीजियेगा। बहुत कुछ बतानेकी इच्छा होती है, परन्तु लिखने या बोलनेकी अधिक इच्छा नही रही । चेष्टासे समझमे आये ऐसा हुआ ही करे, यह इच्छा निश्चल है।
वि० आज्ञाकारी रायचदके दडवत् ।
बबई, कार्तिक वदी १४, गुरु, १९४७ सुज्ञ भाई श्री त्रिभोवन,
आपका एक पत्र मिला | मनन किया।
अतरकी परमार्थवृत्तियोको थोडे समय तक प्रगट करने की इच्छा नही होती। धर्मेच्छुक प्राणियोंके, पत्र, प्रश्न आदि तो अभी बधनरूप माने है क्योकि जिन इच्छाओको अभी प्रगट करनेकी इच्छा नही है उनके अश (निरुपायतासे) उस कारणसे प्रगट करने पड़ते हैं।
नित्य नियममे आपको और सभी भाइयोको अभी तो इतना ही बताता हूँ कि जिस जिस राहसे अनंतकालसे पकडे हुए आग्रहका, अहत्वका और असत्संगका नाश हो उस उस राहमे वृत्ति लानी, यही चिंतन रखनेसे, और परभवका दृढ विश्वास रखनेसे कुछ अंशोमे उसमे सफलता प्राप्त होगी। .. .
वि० रायचदके यथायोग्य ! ... . "7 १७८ - बंबई, कार्तिक वदी ३०, शुक्र, १९४७ सुज्ञ भाई श्री अंबालाल,
यहाँ आनदवृत्ति है । आपकी और दूसरे भाइयोंकी आनद्रवृत्ति चाहता हूँ। आपके पिताजीके धर्मविषयक दो पत्र मिले । इसका क्या उत्तर लिखना ? इसका बहुत विचार रहा करता है। '
. अभी तो मैं किसीको स्पष्टरूपसे धर्म बतानेके योग्य नही हूँ, अथवा, वैसा करनेकी मेरी इच्छा नही रहती । इच्छा, न रहनेका, कारण उदयमान कर्म है। उनकी वृत्ति मेरो, ओर झुकनेका कारण आप. इत्यादि हैं, ऐसी कल्पना है । और मैं भी इच्छा रखता हूँ कि कोई भी जिज्ञासु हो वहा धर्मप्राप्तोसे धर्म प्राप्त करे, तथापि मै वर्तमान कालमे रहता हूँ, वह कालं ऐसा नही है। प्रसगोपात्त मेरे कुछ पत्र उन्हे पढ़ाते, रहिये अथवा उनमे कही हुई बातोका उद्देश आपसे जितना समझाया जाये उतना समझाते रहिये । । । .
- पहले मनुष्यमे यथायोग्य जिज्ञासुता आनी चाहिये। पूर्वके आग्रह और असत्सग दूर होने चाहिये। इसके लिये प्रयत्न कीजिये । और उन्हे प्रेरणा करते रहेगे तो किसी प्रसंगपर अवश्य सम्भाल लेनेका स्मरण करूंगा। नही.तो नही। .. ... . , .