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श्रीमद राजचन्द्र मुनिको सर्वव्यापक अधिष्ठान आत्माके विषयमे कुछ पूछनेसे लक्ष्यरूप उत्तर नही मिल सकेगा। कल्पित उत्तरसे कार्यसिद्धि नहीं है। आप अभो ज्योतिषादिकी भी इच्छा न करें, क्योकि वह कल्पित है, और कल्पितपर ध्यान नही है।
परस्पर समागम-लाभ परमात्माकी कृपासे हो ऐसा चाहता हूँ। वैसे उपाधियोग विशेष रहता है, तथापि समाधिमे योगकी अप्रियता कभी न हो ऐसा ईश्वरका अनुग्रह रहेगा, ऐसा लगता है। विशेष सविस्तर पत्र लिखूगा तब।
वि० रायचद।
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बबई, फागुन वदी ११, १९४७ ज्योतिपको कल्पित कहनेका हेतु यह है कि यह विषय पारमार्थिक ज्ञानकी अपेक्षासे कल्पित हो है, और पारमार्थिक ही सत् है, और उसीकी रटन रहती है । अभी ईश्वरने मेरे सिरपर उपाधिका बोझ विशेष रख दिया है, ऐसा करनेमे उसकी इच्छाको सुखरूप ही मानता हूँ।
___ जैन ग्रथ इस कालको पचमकाल कहते है और पूराण ग्रन्थ इसे कलिकाल कहते हैं, यो इस कालको कठिन काल कहा है, इसका हेतु यह है कि जीवको इस कालमे 'सत्सग और सत्शास्त्र' का मिलना दुर्लभ है, और इसीलिये कालको ऐसा उपनाम दिया है।
हमे भी पचमकाल अथवा कलियुग अभी तो अनुभव देता है। हमारा चित्त निःस्पृह अतिशय है, और जगतमे सस्पृहके रूपमे रह रहे हैं, यह कलियुगकी कृपा है ।
२२३ बबई, फागुन वदी १४, बुध, १९४७ देहाभिमाने गलिते, विज्ञाते परमात्मनि ।
___ यत्र यत्र मनो याति, तत्र तत्र समाधयः॥ मै कर्ता, मैं मनुष्य, मै सुखी, मैं दुखी इत्यादि प्रकारसे रहा हुआ देहाभिमान जिसका क्षीण हो गया है, और सर्वोत्तम पदरूप परमात्माको जिसने जान लिया है, उसका मन जहाँ जहाँ जाता है वहाँ वहाँ उसे समाधि ही है।
आपके पत्र अनेक बार सविस्तर मिलते हैं, और उन पत्रोको पढकर पहले तो समागममे ही रहने की इच्छा होती है। तथापि कारणसे उस इच्छाका चाहे जिस प्रकारसे विस्मरण करना पडता है, और पत्रका सविस्तर उत्तर लिखनेकी इच्छा होती है, तो वह इच्छा भी प्राय. क्वचित् ही पूरी हो “पाती है । इसके दो कारण है । एक तो इस विषयमे अधिक लिखने जैसी दशा नही रही है, और दूसरा कारण है उपाधियोग | उपाधियोगकी अपेक्षा वर्तमान दशाका कारण अधिक बलवान है । - जो दशा बहुत नि स्पृह है, और उसके कारण मन अन्य विषयमे प्रवेश नही करता, और उसमे भी परमार्थके विषयमे लिखते हुए केवल शून्यता जैसा हुआ करता है, इस विषयमे लेखनशक्ति तो इतनी अधिक शून्यताको प्राप्त हो गयी है, वाणी प्रसगोपात्त अभी इस विषयमे कुछ कार्य कर सकती है, और इससे आशा रहती है कि समागममे ईश्वर अवश्य कृपा करेगा। वाणी भी जैसे पहले क्रमपूर्वक बात कर सकती थी, वैसी अब नही लगती । लेखनशक्ति शून्यताको प्राप्त हुई जैसी होनेका कारण एक यह भी है कि चित्तमे उद्भूत बात बहुत नयोसे युक्त होती है, और वह लेखनमे नही आ सकती, जिससे चित्त वैराग्यको प्राप्त हो जाता है ।
आपने एक बार भक्तिके सम्बन्धमे प्रश्न किया था, उसके सम्बन्धमे अधिक बात तो समागममे हो सकती है, और प्राय सभी बातोंके लिये समागम ठीक लगता है। तो भी बहुत ही सक्षिप्त उत्तर लिखता हूँ।