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२४ वां वर्ष
२८१ लिये दुष्कर होता है और विस्तारसे लिखनेपर भी पाठकोको अपने क्षयोपशमकी क्षमतासे अधिक ग्रहण करना कठिन होता है, और फिर लिखनेमे उपयोगको कुछ बहिर्मुख करना पड़ता है, वह भी नही हो सकता । यो अनेक कारणोसे पत्रोकी पहुँच भी कितनी ही बार लिखी नही जाती।
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बबई, फागुन, १९४७ अनतकालसे जीवको असत् वासनाका अभ्यास है। इसमे एकदम सत्सवधी सस्कार स्थित नही होते । जैसे मलिन दर्पणमे यथायोग्य प्रतिबिंव-दर्शन नहीं हो सकता वैसे असद्वासनायुक्त चित्तमे भी सत्सम्बन्धी सस्कार यथायोग्य प्रतिबिंबित नही होते । क्वचित् अशत होते है, वहाँ जीव फिर अनतकालका जो मिथ्या अभ्यास है, उसके विकल्पमे पड जाता है। इसलिये क्वचित् उन सत्के अशोपर आवरण आ जाता है । सत्सवधी सस्कारोकी दृढता होनेके लिये सर्वथा लोकलज्जाकी उपेक्षा करके सत्सगका परिचय करना श्रेयस्कर है। लोकलज्जाको तो किसी बड़े कारणमे सर्वथा छोडना पड़ता है। सामान्यत. लोकसमुदायमे सत्संगका तिरस्कार नही है, जिससे लज्जा दुखदायक नहीं होती । मात्र चित्तमे सत्सगके लाभका विचार करके निरतर अभ्यास करे तो परमार्थमे दृढता होती है।
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बबई, चैत्र सुदी ४, रवि, १९४७ एक पत्र मिला कि जिसमे 'कितने ही जीव योग्यता रखते है, परन्तु मार्ग बतानेवाला नही है' इत्यादि विवरण लिखा है। इस विषयमे पहले आपको प्रायः अति गूढ भी स्पष्टीकरण किया है । तथापि आप परमार्थकी उत्सुकतामे अत्यधिक तन्मय है कि जिससे उस स्पष्टीकरणका विस्मरण हो जाये, इसमे आश्चर्यकी बात नही है फिर भी आपको स्मरण रहनेके लिये लिखता हूँ कि जब तक ईश्वरेच्छा नहीं होगी तब तक || हमसे कुछ भी नही हो सकेगा। एक तिनकेके दो टुकडे करनेकी सत्ता भी हम नही रखते। अधिक क्या कहे ? आप तो करुणामय है। फिर भी आप हमारी करुणाके विषयमे क्यो ध्यान नही देते, और ईश्वरको क्यो नही समझाते?
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बवई, चैत्र सुदी ७, वुध, १९४७ महात्मा कबीरजी तथा नरसिह मेहताकी भक्ति अनन्य, अलौकिक, अद्भुत और सर्वोत्कृष्ट थी, फिर भी वह निःस्पहा थी । ऐसी दुखी स्थिति होनेपर भी उन्होने स्वप्नमे भी आजीविकाके लिये और व्यवहारके लिये परमेश्वरके प्रति दीनता प्रगट नही की । यद्यपि ऐसा किये बिना ईश्वरेच्छासे उनका व्यवहार चलता रहा है, तथापि उनकी दरिद्रावस्था अभी तक जगतविदित है, और यही उनका प्रवल माहात्म्य है। परमात्माने उनका 'परचा' पूरा किया है और वह भी उन भक्तोकी इच्छाकी उपेक्षा करके, क्योकि भक्तोकी ऐसी इच्छा नही होती, और ऐसी इच्छा हो तो उन्हे रहस्यभक्तिकी भी प्राप्ति नही होती। आप हजारो बातें लिखें, परन्तु जब तक नि स्पृह न हो ( न बनें ) तव तक विडवना ही है।
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ववई, चैत्र सुदी ९, शुक्र, १९४७ परेच्छानुचारीको शब्दभेद नहीं है सुज्ञ भाई त्रिभोवन,
___ कार्यके जालमे आ पड़नेके बाद प्राय प्रत्येक जीव पश्चात्तापयुक्त होता है। कार्यके जन्मसे पहले विचार हो और वह दृढ रहे, ऐसा होना बहुत विकट है, ऐसा जो सयाने मनुष्य कहते हैं वह सच है । तो आपको भी इस प्रसगमे दु खपूर्वक चिंतन रहता होगा, और ऐसा होना सम्भव हे। कार्यका जो परिणाम