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श्रीमद राजचन्द्र
नही जाना, एव सर्वथा एकातमे भी नही जाना । मात्र जब थोडे योग्य मनुष्य हो तब जाना । और जाना तो क्रमशः जानेका रखना । क्वचित् कोई क्लेश करे तो सहन करना । जाते ही पहलेसे बलवान क्लेश करनेकी वृत्ति दिखायी दे तो कहना कि " ऐसा क्लेश मात्र विषमदृष्टिवाले मनुष्य उत्पन्न कराते हैं । और यदि आप धैर्यं रखेगे तो अनुक्रमसे वह कारण आपको मालूम हो जायेगा । अकारण नाना प्रकारकी कल्पनाओको फैलानेका जिसे भय न हो उसे ऐसी प्रवृत्ति योग्य है । आपको क्रोधातुर होना योग्य नही है । वैसा होनेसे बहुतसे जीवोको मात्र प्रसन्नता होगी । सघाडेकी, गच्छकी और मार्गकी अकारण अपकीर्ति होनेमे साथ नही देना चाहिये | और यदि शांत रहेगे तो अनुक्रमसे यह क्लेश सर्वथा शात हो जायेगा । लोग वही बात करते हो तो आपको उसका निवारण करना योग्य है, वहाँ उसे उत्पन्न करने जैसा अथवा बढाने जैसा कोई कथन नही करना चाहिये । फिर जैसी आपकी इच्छा ।"
मुनि लल्लुजीसे आपने मेरे लिये जो बात कही है उस बातको मै सिद्ध करना चाहता हूँ ऐसा कहे तो कहना कि " वे महात्मा पुरुष और आप जब पुन मिले तब उस बातका यथार्थ स्पष्टीकरण प्राप्त करके मेरे प्रति क्रोधातुर होना योग्य लगे तो वैसा कीजियेगा । अभी आपने उस विषयमे यथार्थ स्पष्टतासे श्रवण नही किया होगा ऐसा मालूम होता है ।
आपके प्रति द्वेषबुद्धि करनेका मुझे नही कहा है । और आपके लिये विसवाद फैलाने की बात भी किसीके मुँहपर मैने नही की है। आवेशमे कुछ वचन निकला हो तो वैसा भी नही है । मात्र द्वेषवान जीवोकी यह सारी खटपट है ।
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ऐसा होनेपर भी यदि आप कुछ आवेश करेंगे तो मै तो पामर हूँ, इसलिये शांत रहने के सिवाय दूसरा कोई मेरा उपाय नही है । परन्तु आपको लोगोके पक्षका बल है, ऐसा मानकर आवेश करने जायेंगे तो हो सकेगा । परन्तु उससे आपको, हमे और बहुतसे जोवोको कर्मका दीर्घबध होगा, इसके सिवाय कोई दूसरा फूल नही आयेगा | और अन्य लोग प्रसन्न होगे । इसलिये शात दृष्टि रखना योग्य है ।" कहना उचित लगे तो कहना, परन्तु वे कुछ प्रसन्नतामे दिखायी दें तब - प्रसन्नता बढ़ती जाती हो, अथवा अप्रसन्नता होती न दिखायी देती हो,..
यदि किसी प्रसगमे ऐसा कहना । और कहते हुए उनकी तब तक कहना ।
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अपरिचित मनुष्यो द्वारा वे उलटी सीधी बात फैलाये अथवा दूसरे वैसी बात लाये तो कहना कि आप सबका कषाय करनेका हेतु मेरो समझमे है । किसी स्त्री या पुरुषपर कलक लगाते हुए इतनी अधिक प्रसन्नता रखते है तो इसमे कही अनिष्ट हो जायेगा । मेरे साथ आप अधिक बात नही करें। आप अपनी सँभाले । इस तरह योग्य भाषामे जब अवसर दिखायी दे तब कहना । बाकी शांत रहना । मनमे आकुल नही होना । उपाश्रयमे जाना, न जाना, साणद जाना, न जाना यह अवसरोचित जैसे आपको लगे वैसे करें । परन्तु मुख्यत ज्ञात रहे और सिद्ध कर देनेके सम्बन्धमे किसी भी स्पष्टीकरणपर ध्यान न दें। ऐसा धैर्यं रखकर, आत्मार्थमे निर्भय रहिये ।
बात कहनेवालेको कहना कि मनकी कल्पित बातें किसलिये चला रहे है ? कुछ परमेश्वरका डर रखें तो अच्छा, यो योग्य शब्दोमे कहना, आत्मार्थ में प्रयत्न करना ।
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बबई, वैशाख सुदी २, १९४७
सर्वात्माके अनुग्रहसे यहाँ समाधि है । बाह्योपाधियोग रहता है । आपकी इच्छा स्मृतिमे हैं । और उसके लिये आपकी अनुकूलताके अनुसार करने को तैयार हैं, तथापि ऐसा तो रहता है कि अबका हमारा समागम एकात अज्ञात स्थानमे होना कल्याणक है । और वैसा प्रसगं ध्यानमे रखनेका प्रयत्न है । नही तो