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२४ वाँ वर्ष
२९१ , व्यवस्थित मन सर्व शुचिका कारण है। बाह्य मलादिरहित तन और शुद्ध एव स्पष्ट वाणो यह शुचि है।
वि० रायचद
२५४ वबई, आषाढ सुदी ८, मगल, १९४७ निःशंकतासे निर्भयता उत्पन्न होती है।
___ और उससे निःसंगता प्राप्त होती है प्रकृतिके विस्तारसे जीवके कर्म अनत प्रकारकी विचित्रतासे प्रवर्तन करते है, और इससे दोषके प्रकार भी अनत भासित होते है, परन्तु सबसे बडा दोष यह है कि जिससे 'तीव्र मुमुक्षुता' उत्पन्न ही न हो, अथवा 'मुमुक्षुता' ही उत्पन्न न हो।
प्राय मनुष्यात्मा किसी न किसी धर्ममतमे होता है, और उससे वह धर्ममतके अनुसार प्रवर्तन करता है ऐसा मानता है, परन्तु इसका नाम 'मुमुक्षुता' नही है ।
_ 'मुमुक्षुता' यह है कि सर्व प्रकारकी मोहामक्तिसे अकुलाकर एक मोक्षके लिये ही यत्न करना और _ 'तीव्र मुमुक्षुता' यह है कि अनन्य प्रेमसे मोक्षके मार्गमे प्रतिक्षण प्रवृत्ति करना ।
'तीन मुमुक्षुता' के विषयमे यहाँ कहना नही है परन्तु 'मुमुक्षुता' के विषयमे कहना है, कि वह उत्पन्न होनेका लक्षण अपने दोष देखनेमे अपक्षपातता है और उससे स्वच्छदका नाश होता है ।
स्वच्छदकी जहाँ थोडी अथवा बहुत हानि हुई है, वहाँ उतनी बोधबीज योग्य भूमिका होती है।
स्वच्छद जहां प्राय. दब गया है. वहाँ फिर 'मार्गप्राप्ति' को रोकनेवाले मुख्यत तीन कारण होते हैं, ऐसा हम जानते है।
इस लोककी अल्प भी सुखेच्छा,' परम दीनताकी न्यूनता और पदार्थका अनिर्णय ।
इन सब कारणोको दूर करनेका बीज अब आगे कहेगे। इससे पहले इन्ही कारणोको अधिकतासे कहते हैं।
... 'इस लोककी अल्प भी सुखेच्छा' यह प्रायः तीव्र मुमुक्षुताकी उत्पत्ति होनेसे पहले होती है। उसके हानक कारण ये है-नि शकतासे यह 'सत्' है ऐसा दृढ नहीं हुआ है, अथवा यह 'परमानन्दरूप' हो है ऐसा भी निश्चय नही है, अथवा तो मुमुक्षुतामे भी कितने ही आनदका अनुभव होता है, इससे वाह्यसाताके कारण भी कितनी ही बार प्रिय लगते हैं (I) और इससे इस लोककी अल्प भी सुखेच्छा रहा करती है, जिससे जीवकी योग्यता रुक जाती है।
सत्पुरुषमे ही परमेश्वरबुद्धि, इसे ज्ञानियोने परम धर्म कहा है, और यह बुद्धि परम दीनताको सूचित करती है, जिससे सर्व प्राणियोके प्रति अपना दासत्व माना जाता है और परम योग्यताकी प्राप्ति होतो है । यह 'परम दीनता' जब तक आवरित रही है तब तक जीवकी योग्यता प्रतिवन्धयुक्त होती है।
कदाचित् ये दोनो प्राप्त हो गये हो तथापि वास्तविक तत्त्व पानेकी कुछ योग्यताकी न्यूनताके कारण पदार्थ-निर्णय न हआ हो तो चित्त व्याकुल रहता है, और मिथ्या समता आती है, कल्पित पदार्थम _ 'सत्' को मान्यता होती है, जिससे कालक्रमसे अपूर्व पदार्थमे परम प्रेम नही आता, और यही परम योग्यताकी हानि है।
१ पाठान्तर-परम विनयकी न्यूनता ।
२ पाठान्तर -तथारूप पहचान होनेपर सद्गुरुमें परमेश्वरवृद्धि रखकर उनकी आज्ञासे प्रवृत्ति करना इसे ___ 'परम विनय' कहा है। इससे परम योग्यताकी प्राप्ति होती है । यह परम विनय जब तक नही आती तव तक जीवमे
योग्यता नहीं आती।