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२५ वाँ वर्ष
३१७ समय-समयपर अनन्तगुणविशिष्ट आत्मभाव बढता हो ऐसी दशा रहती है, जिसे प्राय भॉपने नही दिया जाता, अथवा भॉप सकनेवालेका प्रसंग नही है।
__ आत्माके विषयमे सहज स्मरणसे प्राप्त हुआ ज्ञान श्री वर्धमानमे था ऐसा मालूम होता है । पूर्ण वीतराग जैसा बोध हमे सहज ही याद आ जाता है, इसीलिये आपको और गोसलियाको लिखा था कि आप पदार्थको समझें । वैसा लिखनेमे दूसरा कोई हेतु न था।
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बबई, पौष सुदी ११, सोम, १९४८ ।। 'जिन थई जिनवरने आराधे, ते सही जिनवर होवे रे। भुंगी इलीकाने चटकावे, ते मुंगी जग जोवे रे॥
आतमध्यान करे जो कोउ, सो फिर इणमे नावे । वाक्य जाळ बोजु सौ जाणे, एह तत्त्व चित्त चावे ॥
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बबई, पौष सुदी ११, १९४८ हम कभी कोई वाक्य, पद या चरण लिख भेजे उसे आपने कही भी पढा या सुना हो तो भी अपूर्ववत् मानें।
हम स्वय तो अभी यथाशक्ति वैसा कुछ करनेकी इच्छावाली दशामे नही है ।
स्वरूप सहजमे है । ज्ञानीके चरणोकी सेवाके बिना अनन्त काल तक भी प्राप्त न हो ऐसा विकट भी है। आत्मसयमको याद करते हैं । यथारूप वीतरागताकी पूर्णता चाहते हैं । बस इतना ही।
श्री बोधस्वरूपके यथायोग्य ।
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बबई, पौष वदी ३, रवि, १९४८ 'एक परिनामके न करता दरव दोई, दोई परिनाम एक दर्व न धरतु है। एक करतूति दोई दर्व कबहूँ न करै, दोई करतूति एक दवं न करतु है। जीव पुद्गल एक खेत अवगाही दोउ,
अपने अपने रूप, कोउ न टरतु है। १ भावार्य-जो प्राणी जिनेश्वरके स्वरूपको लक्ष्यमें रखकर तदाकार वृतिसे जिनेश्वरकी आराधना करता है-ध्यान करता है वह निश्चयसे जिनवर-कैवलदर्शनी हो जाता है। जैसे भौंरी कीडेको मिट्टीके घरमें वन्द कर देती है, फिर उसे चटकाने--डक मारनेसे वह कीडा भौरी होकर वाहर आता है जिसे जगत देखता है । तात्पर्य यह है कि श्रद्धा, निष्ठा एव भावनासे जोव इष्टसिद्धि प्राप्त कर लेता है । विशेपार्थके लिये देखें आक ३८७ ।
२ भावार्थ--जो कोई स्थिर आसनसे आत्मामें लीन होकर तदाकार वृत्तिसे शुद्ध वात्मस्वरूप का ध्यान करता है वह अनेक मतवादियोके विभ्रम- ममत्व रूप जालमै नही फंसता तया रागद्वेष, मोह और अज्ञानको छोडता है, आत्मस्वरूपके कथनके बिना अन्य जप, तप, पूजा, नियम आदिको वाग्जाल समझता है और आत्मस्वरूपके तत्त्वका ही अपने चित्तम चिन्तन करता है।