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श्रीमद राजचन्द्र ज्ञान' होना चाहिये। यह सिद्धांतज्ञान' हमारे हृदयमे आवरितरूपसे पडा है। हरीच्छा यदि प्रगट होने देनेकी होगी तो होगा । हमारा देश हरि है, जाति हरि है, काल हरि है, देह हरि है, रूप हरि है, नाम हरि है, दिशा हरि है, सर्व हरि है, और फिर भी इस प्रकार कारोबारमे हैं, यह इसकी इच्छाका कारण है।
ॐ शाति शाति' शातिः।
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___ बबई, आषाढ वदी २, १९४७ "अथाह प्रेमसे आपको नमस्कार" विस्तारसे लिखे हुए दो पत्र आपकी ओरसे मिले । आप इतना परिश्रम उठाते हैं यह हमपर आपकी कृपा है।
इनमे जिन जिन प्रश्नोका उत्तर पूछा है वे समागममे जरूर देंगे। जीवके बढने घटनेके विषयमे, एक आत्माके विषयमे, अनत आत्माके विषयमे, मोक्षके विषयमे और मोक्षके अनत सुखके विषयमे, आपको इस बार समागममे सभी प्रकारसे निर्णय बता देनेका सोच रखा है। क्योकि इसके लिये हमपर हरिकी कृपा हुई है, परन्तु वह मात्र आपको बतानेके लिये, दूसरोके लिये प्रेरणा नही की है।
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बबई, आषाढ वदी ४, १९४७ यहाँ ईश्वरकृपासे आनन्द है । आपका पत्र चाहता हूँ।
बहुत कुछ लिखना सूझता है, परन्तु लिखा नही जा सकता। उनमे भी एक कारण समागम होनेके वाद लिखनेका है। और समागमके बाद लिखने जैसा तो मात्र प्रेम-स्नेह रहेगा, लिखना भी वारंवार आकुल होनेसे सूझता है । बहुतसी धाराएँ बहती देखकर, कोई कुछ पेट देने योग्य मिले तो बहुत अच्छा हो, ऐसा प्रतीत हो जानेसे, कोई न मिलनेसे आपको लिखनेकी इच्छा होती है। परन्तु उसमे उपर्युक्त कारणसे प्रवृत्ति नहीं होती।
जीव स्वभावसे (अपनी समझकी भूलसे) दूषित है, तो फिर उसके दोषकी ओर देखना, यह अनुकंपाका त्याग करने जैसी बात है, और बडे पुरुष ऐसा आचरण करना नही चाहते । कलियुगमे असत्सगसे और नासमझीसे भूलभरे रास्तेपर न जाया जाये, ऐसा होना बहुत मुश्किल है, इस बातका स्पष्टीकरण फिर होगा।
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बबई, आषाढ, १९४७ ॐ सत् *बिना नयन पावे नही, बिना नयनकी बात।
सेवे सद्गुरुके चरन, सो पावे साक्षात् ॥१॥ बूझो चहत जो प्यासको, है बूझनकी रीत ।
पावे नहि गुरुगम बिना, एही अनादि स्थित ॥२॥ १ देखें आक ८८३ ।
*भावार्य-अतर्दृष्टिके बिना इन्द्रियातीत शुद्ध आत्माकी प्राप्ति नही हो सकती अर्थात् उसका साक्षात्कार नही हो सकता । जो सद्गुरुके चरणोकी उपासना करता है उसे आत्मस्वरूपकी साक्षात् प्राप्ति होती है ॥१॥
___ यदि तू आत्मदर्शनकी प्यासको बुझाना चाहता है तो उसे वुझानेका उपाय है, जिसकी प्राप्ति गुरुसे होती है, यही अनादि कालकी स्थिति है ।।२।।