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२४ वा वर्ष
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बबई, श्रावण सुदी, १९४७ उपाधिके उदयके कारण पहुँच देना नहीं हो सका, उसके लिये क्षमा करें। यहाँ हमारी उपाधिके उदयके कारण स्थिति है । इसलिये आपको समागम रहना दुर्लभ है।
इस जगतमे, चतुर्थकाल जैसे कालमे भी सत्सगकी प्राप्ति होना बहुत दुर्लभ है, तो इस दुषमकालमे उसकी प्राप्ति परम दुर्लभ होना सम्भव है, ऐसा समझकर जिस जिस प्रकारसे सत्संगके वियोगमे भी आत्मामे गुणोत्पत्ति हो उस उस प्रकारसे प्रवृत्ति करनेका पुरुषार्थ वारवार, समय समय पर और प्रसग प्रसंगपर करना चाहिये, और निरतर सत्सगकी इच्छा, असत्संगमे उदासीनता रहनेमे मुख्य कारण वैसा पुरुषार्थ है, ऐसा समझकर जो कुछ निवृत्तिके कारण हो उन सब कारणोका वारवार विचार करना योग्य है।
हमे यह लिखते हुए ऐसा स्मरण होता है कि "क्या करना ?" अथवा "किसी प्रकारसे नही हो पाता ?" ऐसा विचार आपके चित्तमे वारवार आता होगा, तथापि ऐसा योग्य है कि जो पुरुष दूसरे सब प्रकारके विचारोको अकर्तव्यरूप जानकर आत्मकल्याणमे उत्साही होता है, उसे, कुछ नही जाननेपर भी, उसी विचारके परिणाममे जो करना योग्य है, और किसी प्रकारसे नही हो पाता , ऐसा भासमान होनेपर उसके प्रकट होनेकी स्थिति जीवमे उत्पन्न होती है, अथवा कृतकृत्यताका साक्षात् स्वरूप उत्पन्न होता है।
_दोष करते हैं ऐसी स्थितिमे इस जगतके जीवोके तीन प्रकार ज्ञानी पुरुषने देखे हैं। (१) किसी भी प्रकारसे जीव दोष या कल्याणका विचार नहीं कर सका, अथवा करनेकी जो स्थिति है उसमे वेभान है, ऐसे जीवोका एक प्रकार है । (२) अज्ञानतासे, असत्सगके अभ्याससे भासमान बोधसे दोष करते है उस क्रियाको कल्याणस्वरूप माननेवाले जीवोका दूसरा प्रकार है। (३) उदयाधीनरूपसे मात्र जिमकी स्थिति है, सर्व परस्वरूपका साक्षी है ऐसा बोधस्वरूप जीव, मात्र उदासीनतासे कर्ता दिखायी देता है, ऐसे जीवोका तीसरा प्रकार है।
___ इस तरह ज्ञानी पुरुषने तीन प्रकारका जीव-समूह देखा है। प्रायः प्रथम प्रकारमे स्त्री, पुत्र, मित्र, धन आदिकी प्राप्ति-अप्राप्तिके प्रकारमे तदाकार-परिणामी जैसे भासित होनेवाले जीवोका समावेश होता है । भिन्न-भिन्न धर्मोकी नामक्रिया करनेवाले जीव, अथवा स्वच्छद-परिणामी परमार्थमार्गपर चलते हैं ऐसी बुद्धि रखनेवाले जीवोका दूसरे प्रकारमे समावेश होता है। स्त्री, पुत्र, मित्र, धन आदिकी प्राप्तिअप्राप्ति इत्यादि भावमे जिन्हे वैराग्य उत्पन्न हुआ है अथवा हुआ करता है; जिनका स्वच्छद-परिणाम गलित हुआ है, और जो ऐसे भावके विचारमे निरन्तर रहते हैं, ऐसे जीवोका समावेश तीसरे प्रकारमे होता है। जिस प्रकारसे तीसरा प्रकार सिद्ध हो ऐसा विचार है। जो विचारवान है उसे यथावुद्धिसे, सद्ग्रन्थसे और सत्संगसे वह विचार प्राप्त होता है, और अनुक्रमसे दोषरहित स्वरूप उसमे उत्पन्न होता है। यह बात पुन. पुन सोते जागते और भिन्न-भिन्न प्रकारसे विचार करने, स्मरण करने योग्य है।
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राळज, भादो सुदी ८, शुक्र, १९४७ वियोगसे हुए दु.खके सम्बन्धमे आपका एक पत्र चारेक दिन पहले प्राप्त हुआ था। उसमे प्रदर्शित इच्छाके विषयमे थोडे शब्दोमे बताने जितना समय है, वह यह है कि आपको जैसी ज्ञानकी अभिलापा है वैसी भक्तिकी नहीं है। प्रेमरूप भक्तिके विना ज्ञान शून्य ही है, तो फिर उसे प्राप्त करके क्या करना हे ? जो रुका है वह योग्यताको न्यूनताके कारण है, और आप ज्ञानीकी अपेक्षा ज्ञानमे अधिक प्रेम रखते हैं उसके कारण है। ज्ञानोसे ज्ञानकी इच्छा रखनेकी अपेक्षा वोधस्वरूप समझकर भक्ति चाहना परम फल है। अधिक क्या कहे ?
मन, वचन और कायासे आपके प्रति कोई भी दोष हुआ हो, तो दीनतापूर्वक क्षमा मांगता हूँ।