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श्रीमद राजचन्द्र
, ३. सन्मतितर्कमे श्री सिद्धसेन दिवाकरने कहा है कि 'जितने वचनमार्ग हैं उतने नयवाद हैं, और
जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय है । -
- इंट
४. अक्षय भगत कविने कहा है
* कर्ता मटे तो छूटे कर्म, ए छे महा भजननो मर्म, जो तुं जीव तो कर्त्ता हरि, जो तुं शिव तो वस्तु खरी, तं छो जीव ने तुं छो नाथ, एम कही अखे झटक्या हाथ ॥'
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२८५
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अपने से अपनेको अपूर्व प्राप्त होना "दुष्कर है, जिससे प्राप्त होता है, उसका स्वरूप पहचाना ( 4157122 जाना दुष्कर है, और जीवका भुलावा भी यहीं है 250-1,
'इस पत्र लिखे हुए प्रश्नो के उत्तर संक्षेपमे निम्नलिखित है—
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१, २, ३, ये तीनो प्रश्न स्मृतिमे होंगे। इनमे यो बताया गया है कि- " ( १ ) ठाणागमे जो आठ वाद़ियोके वाद कहें है उनमेंसे आपको और हमे किस वाद मे दाखिल होना ? ( २ ) इन आठ वांदोसे कोई भिन्नं मार्ग अपनाने योग्य हो तो उसे जानने की आकाक्षा है'। ( ३ ) अथवा आठों वादियोके मार्गको " एकीकरण करना ही मार्ग है या किस तरह ? अथवो उन आठ वादियो के एकीकरणमे कुछ न्यूनीधिकता - करके मार्ग ग्रहण करने योग्य है ? और है तो क्या ?",
I 27 ऐसा लिखा है, इस विषयमे कहना है कि इन आठ वादके अतिरिक्त अन्य दर्शनोमे, सम्प्रदायोमे मार्ग कुछ ( अन्वित ) - जुड़ा हुआ रहता है, नही तो प्राय भिन्न हो (व्यतिरिक्त) रहता है । वह वाद, दर्शन, सम्प्रदाय ये सब किसी तरह प्राप्ति कारणरूप होते है, परन्तु सम्यग्ज्ञानीके बिना दूसरे जीवोके" लिये तो बन्धून भी होते हैं । जिसे मार्ग की इच्छा उत्पन्न हुई है। उसे इन सबका साधारण ज्ञान करना, पढ़ना, और विचार करना, तथा बाकीमे मध्यस्थ रहना योग्य है । साधारण ज्ञानका अर्थ यहाँ यह समझें कि सभी शास्त्रोमे वर्णन करते हुए जिस ज्ञानमे, अधिक भिन्नता न आयी, हो वह
: तीर्थंकर, लाकर गर्भमे उत्पन्न हो अथवा जन्म ले तब, या उसके बाद देवता जानें कि यह तीर्थंकर है ? और जानें तो किस तरह ? इसका उत्तर यह है कि जिन्हे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ है वे देवता 'अवधि-: ज्ञानसे' तीर्थंकरको जानते हैं, सभी नही जानते । जिन प्रकृतियोके नाशंसे 'जन्मत.' तीर्थंकर अवधिज्ञानसंयुक्त होते है वे प्रकृतियाँ उनमे दिखायी न देने से वे सम्यग्ज्ञानी देवता तीर्थंकरको पहचान सकते हैं । यही विज्ञापन है ।
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501112 सुदी ७, शुक्र, १९४७,
- मुमुक्षुताके सन्मुख होनेके इच्छुक आप दोनोको यथायोग्य प्रणाम करता हूँ ।
प्रायः परमार्थ मौनमे रहनेकी स्थिति अभी उदयमे है और इसी कारण तद्नुसार प्रवृत्ति करने काल व्यतीत होता है, और इसी कारणसे आपके प्रश्नो के उत्तर ऊपर संक्षेपमे दिये हैं । -
शतमूर्ति सौभाग्य अभी मोरबीमे है ।
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१. तृतीय काण्ड, गाथा ४७
*भावार्थ-केर्तृत्वभाव मिट जाये तो कर्म छूट जायें, यह महा भक्तिका मर्म है । यदि तू जीव है तो हरि कर्त्ता है, और यदि तू शिव है' तो वस्तु-तत्त्व- परमसत् सत्य है । तू जीव है और तू नाथ है' अर्थात् द्वैत न होकर अद्वैत हे । यो कहकर अक्षय भगतने अपने हाथ झाड दिये. 1157