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श्रीमद् राजचन्द्र ये तीनो कारण प्राय. हमे मिले हुए अधिकाश मुमुक्षुओमे हमने देखे है। मात्र दूसरे कारणकी कुछ न्यूनता किसी-किसीमे देखी है, और यदि उनमे सर्व प्रकारसे ('परम दीनताकी कमीको) न्यूनता होनेका प्रयत्न हो तो योग्य हो ऐसा जानते है । परम दीनता इन तीनोमे बलवान साधन है, और इन तीनोका बीज महात्माके प्रति परम प्रेमार्पण है।
अधिक क्या कहे ? अनत कालमे यही मार्ग है।
पहले और तीसरे कारणको दूर करनेके लिये दूसरे कारणकी हानि करना और महात्माके योगसे उसके अलौकिक स्वरूपको पहचानना । पहचाननेकी परम तीव्रता रखना, तो पहचाना जायेगा। मुमुक्षुके नेत्र महात्माको पहचान लेते हैं।
महात्मामे जिसे दृढ निश्चय होता है, उसे मोहासक्ति दूर होकर पदार्थका निर्णय होता है। उससे व्याकुलता मिटती है । उससे नि शकता आती है जिससे जीव सर्व प्रकारके दु खोसे निर्भय हो जाता है और उसीसे नि.सगता उत्पन्न होती है, और ऐसा योग्य है।
मात्र आप सव मुमुक्षुओके लिये यह अति सक्षिप्त लिखा है, इसका परस्पर विचार करके विस्तार करना और इसे समझना ऐसा हम कहते है।
हमने इसमे बहुत गूढ शास्त्रार्थ भी प्रतिपादित किया है।
आप वारवार विचार कीजिये । योग्यता होगी तो हमारे समागममे इस बातका विस्तारसे विचार बतायेगे।
अभी हमारे समागमका सभव तो नही है, परन्तु शायद श्रावण वदीमे करें तो हो, परन्तु वह कहाँ होगा उसका अभी तक विचार नही किया है।
कलियुग है, इसलिये क्षण भर भी वस्तु विचारके बिना नही रहना यह महात्माओकी शिक्षा है । आप सबको यथायोग्य पहुँचे।
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बबई, आषाढ सुदी १३, १९४७
सुखना सिंधु श्री सहजानदजी, जगजीवन के जगवदजी।
शरणागतना सदा सुखकदजी, परमस्नेही छो (!) परमानदजी ॥ अपूर्व स्नेहमूर्ति आपको हमारा प्रणाम पहुँचे । हरिकृपासे हम परम प्रसन्न पदमे है । आपका सत्संग निरतर चाहत है।
हमारी दशा आजकल कैसी रहती है, यह जाननेकी आपकी इच्छा रहती है, परतु यथेष्ट विवरणपूर्वक वह लिखी नही जा सकती, इसलिये वारवार नही लिखी है। यहाँ सक्षेपमे लिखते हैं। - एक पुराणपुरुप और पुराणपुरुषकी प्रेमसपत्तिके बिना हमे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, हमे किसी पदार्थमे रुचि मात्र नही रही है, कुछ प्राप्त करनेकी इच्छा नही होती, व्यवहार कैसे चलता है इसका भान नही हैं, जगत किस स्थितिमे है इसकी स्मृति नहीं रहती, शत्रु-मित्रमे कोई भेदभाव नही रहा, कौन शत्रु है और कोन मित्र है, इसका ख्याल रखा नही जाता, हम देहधारी हैं या नहीं इसे जब याद करते हैं तब मुश्किलसे जान पाते हैं, हमे क्या करना है, यह किसीसे जाना नहीं जा सकता, हम सभी पदार्थोसे उदास
१ पाठान्तर-परम विनयकी । २ पाठान्तर-और परम विनयमें रहना योग्य है ।
३ भावार्थ सहजानदस्वरूप परमात्मा सुखके सागर, जगनके आधार, जगतवद्य, सदा शरणागतको सुखवे मूल कारण, परम स्नेही और परमानदरूप है।