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श्रीमद राजचन्द्र
नही है ऐसा समझमे आता है । वालजीव तो उम स्वरूपको शाश्वत मानकर भ्रातिमे पड जाते है, परन्तु कोई योग्य जीव ऐसी अनेकताकी कथनी से परेशान होकर 'सत्' की ओर झुकता है । प्राय सभी मुमुक्षु इसी प्रकार मार्गको प्राप्त हुए है । भ्राति' का ही रूप ऐसे इस जगतका वारवार वर्णन करनेका महा '! पुरुपोका यही उद्देश है कि उस स्वरूपका विचार करते हुए प्राणी भ्रातिको प्राप्त हो कि सच्चा क्या है ? 'यो अनेक प्रकार से कहा गया है, उसमे क्या मानूं ? और मेरे लिये क्या कल्याणकारक हे ? यो विचार करते करते इसे एक भ्रातिका विपय मानकर जहाँ से 'सत्' की प्राप्ति होती हैं ऐसे मतकी शरणके विना छुटकारा नही है, ऐसा समझकर, उसे खोजकर, शरणापन्न होकर, 'सत्' पाकर 'सत्' रूप हो जाता है । जेनकी वाह्य शैलीको देखते हुए तो, तीर्थंकरको सपूर्ण ज्ञान होता हे यो कहते हुए हम भ्राति पड जाते है । इसका अर्थ यह है कि जेनकी अतरौली दूसरी होनी चाहिये। क्योकि इस जगतको 'अधिष्ठान' से रहित वर्णित किया गया है, और वह वर्णन अनेक प्राणियो, विचक्षण आचार्यको भी भ्रातिका कारण हुआ है। तथापि हम अपने अभिप्राय से विचार करते है, तो ऐसा लगता है कि तीर्थंकरदेव तो ज्ञानी आत्मा होने चाहिये, परंतु उस कालकी अपेक्षासे जगतके रूपका वर्णन किया है। और लोक सर्वं कालके लिये॰ ऐसा मान बैठे है, जिससे भ्रातिमें पडे है। चाहे जो हो, परतु इस कालमे जैन तीर्थंकर मार्गको जानने की आकाक्षावाले जीवोका होना दुर्लभ सभवित है, क्योकि चट्टानपर चढा हुआ जहाज, और वह भी पुराना, यह भयकर है। उसी प्रकार जैनकी कथनी जीर्ण शीर्ण हो गयी है । 'अधिष्ठान' विषयको भ्रातिरूप चट्टानपर उसका जहाज चढा है, जिससे सुखरूप होना संभव नही है । यह हमारी बात प्रत्यक्षरूप मे दिखायी देगी ।
तीर्थङ्करदेव के सम्बन्धमे हमे वारवार विचार रहा करता है कि उन्होने 'अधिष्ठान' के बिना इस जगतका वर्णन किया है, उसका क्या कारण होगा ? क्या उन्हे 'अधिष्ठान' का ज्ञान नही हुआ होगा ? अथवा 'अधिष्ठान' ही नही होगा ? अथवा किसी उद्देशसे छुपाया होगा ? अथवा कथन भेदसे परम्परासे समझमे न आनेसे 'अविष्ठान' विषयक कथन लयको प्राप्त हुआ होगा ? ये विचार हुआ करते है । यद्यपि हम तीर्थको महापुरुष मानते है, उन्हे नमस्कार करते है, उनके अपूर्व गुणोपर हमारी परम भक्ति है, और इसलिये हम समझते है कि 'अधिष्ठान' तो उन्होने जाना था, परतु लोगोने परपरासे मार्ग की भूलसे
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उसका लय कर डाला ।
जगतका कोई 'अधिष्ठान' होना चाहिये ऐसा बहुतसे महात्माओका कथन है । और हम भी यही कहते है कि 'अधिष्ठान' है । और वह 'अधिष्ठान' ही हरि भगवान है, जिसे पुन: पुनः हृदयदेशमे
देखते हैं ।
'अधिष्ठान' एव उपर्युक्त कथनके विपयमे समागममे अधिक सत्कथा होगी । लेखनमे वैसी नही आ सकेगी। इसलिये इतनेसे ही रुक जाता हूँ ।
जनक विदेही ससारमे रहते हुए भी विदेही रह सके यह यद्यपि एक वडा आश्चर्य है, महा महा विकट है, तथापि जिसका आत्मा परमज्ञानमे तदाकार है, वह जैसे रहता है वैसे रहा जाता हे। और जैसे प्रारब्धकर्मका उदय वैसे रहते हुए उसे वाघ नही होता। जिनका सदेह होनेका अहभाव मिट गया है ऐसे उन महाभाग्य की देह भी मानो आत्मभावमे ही रहती थी, तो फिर उनकी दशा भेदवाली कहाँसे होगी ?
श्रीकृष्ण महात्मा थे और ज्ञानी होते हुए भी उदयभावसे ससारमे रहे थे, इतना जैन शास्त्रसे भी जाना जा सकता है और यह यथार्थ है, तथापि उनकी गतिके विपयमे जो भेद बताया है उसका भिन्न
कारण है । और भागवत आदिमे तो जिन श्रीकृष्णका वर्णन किया है वे तो परमात्मा ही हैं । परमात्माको लीलाको महात्मा कृष्णके नामसे गाया है। और इस भागवत और इस कृष्णको यदि महापुरुपसे समझ