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२४ वाँ वर्ष - सर्वात्मा हरि समर्थ है। आप और महा पुरुपोकी कृपासे निर्बल मति कम रहती है। आपके उपाधियोगके सम्बन्धमे यद्यपि ध्यान रहा करता है, परन्तु जो कुछ सत्ता है वह उस सर्वात्माके हाथ है। और वह सत्ता निरपेक्ष, निराकाक्ष ज्ञानीको ही प्राप्त होती है। जब तक उस सर्वात्मा हरिकी इच्छा जैसी हो उसी प्रकार ज्ञानी भी चले यह आज्ञाकारी धर्म है, इत्यादि बहुतसी बातें है। शब्दोमे लिखी नही जा सकती, और समागमके सिवाय यह बात करनेका अन्य कोई उपाय हाथमे नही है, इसलिये जब ईश्वरेच्छा होगी तव यह बात करेंगे।
ऊपर जो उपाधिमेसे अहत्व दूर करनेके वचन लिखे हैं, उन पर आप कुछ समय विचार करेंगे त्यो ही वैसी दशा हो जायेगी ऐसी आपकी मनोवृत्ति है, और ऐसी पागल शिक्षा लिखनेकी सर्वात्मा हरिकी इच्छा होनेसे मैने आपको लिखी है, इसलिये यथासभव इसे अपनायें । पुनः पुनः आपसे अनुरोध है कि उपाधिमे आप यथासभव नि शकतासे रहकर उद्यम करें । क्या होगा ? यह विचार छोड दे।
इससे विशेष स्पष्ट वात लिखनेकी योग्यता अभी मुझे देनेका अनुग्रह ईश्वरने नहीं किया है, और उसका कारण मेरी वैसी अधीन भक्ति नहीं है । आप सर्वथा निर्भय रहे ऐसी मेरी पुनः पुन विनती है । इसके सिवाय मै और कुछ लिखने योग्य नही हूँ। इस विषयमे समागममे हम बातचीत करेंगे । आप किसी तरह खिन्न न हो। यह खाली धीरज देनेके लिये ही सम्मति नही दी है, परतु जैसी अन्तरमे स्फुरित हई वैसी सम्मति दी है। अधिक लिखा नही जा सकता, परतु आपको आकुल नही रहना चाहिये, इस विनतीको वारवार मानिये । बाकी हम तो निवल हैं। जरूर मानिये कि हम निर्बल हैं; परतु ऊपर निती ई - मति सवल है, जैसी-तैसी नही है, परतु सच्ची है। आपके लिये यही मार्ग योग्य है।
__ आप ज्ञानकथा लिखियेगा। 'प्रबोधशतक' अभी तो भाई रेवाशकर पढते है। रविवार तक वापिस भेजना सम्भव होगा तो वापिस भेजंगा, नही तो रखनेके बारेमे लिखूगा, और ऐसा होनेपर भी उसके मालिककी ओरसे कुछ जल्दी हो तो लिखियेगा, तो भेज दूंगा।
आपके सभी प्रश्नोके यथेच्छ उत्तर उपाधियोगके कारण अपनी पूर्ण इच्छासे नही लिख सका हूँ, परतु आप मेरे अतरको समझ लेंगे ऐसी मुझे नि शकता है।
लि० आज्ञाकारी रायचद।
२१८ ___ बबई, फागुन सुदी १३, सोम, १९४७
सर्वात्मा हरिको नमस्कार 'सत्' सत् है, सरल है, सुगम है, उसको प्राप्ति सर्वत्र होती है।
सत् है । कालसे उसे बाधा नहीं है । वह सवका अधिष्ठान है। वाणीसे अकथ्य है। उसकी प्राप्ति होती है, और उस प्राप्तिका उपाय है।
चाहे जिस सप्रदाय, दर्शनके महात्माओका लक्ष्य एक 'सत्' ही है। वाणीसे अकय्य होनेसे गॅगेकी भांति समझाया गया है, जिससे उनके कयनमे कुछ भेद लगता है, वस्तुत भेद नही है।
लोकका स्वरूप सर्व कालमे एक स्थितिका नही है, वह क्षण क्षणमे रूपातर पाता रहता है, अनेक रूप नये होते है, अनेक स्थिर रहते हैं और अनेक लय पाते हैं । एक क्षण पहले जो रूप बाह्य ज्ञानसे मालूम नही हुआ था, वह दिखायी देता है, और क्षणमे बहुत दीर्घ विस्तारवाले रूप लयको प्राप्त होते जाते हैं। । महात्माकी विद्यमानतामे भासमान लोकके स्वरूपको अज्ञानीके अनुग्रहके लिये कुछ रूपातरपूर्वक कहा । जाता है, परतु जिसकी सर्व कालमे एकसी स्थिति नही है, ऐसा यह रूप 'सत्' नही होनेसे चाहे जिस । रूपमे वर्णन करके उस समय भ्राति दूर की गयी है, ओर इसके कारण, सर्वत्र यह स्वरूप हो ही, ऐसा