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श्रीमद राजचन्द्र
उस 'परमसत्' को ही हम अनन्य प्रेमसे अविच्छिन्न भक्ति चाहते है।
उस 'परमसत्' को 'परमज्ञान' कहे, चाहे तो 'परमप्रेम' कहे और चाहे तो 'सत्-चित्-आनदस्वरूप' कहे, चाहे तो 'आत्मा' कहे, चाहे तो 'सर्वात्मा' कहे चाहे तो एक कहे, चाहे तो अनेक कहे, चाहे तो एकरूप कहे, चाहे तो सर्वरूप कहे, परन्तु सत् सत् ही है। और वही इस सब प्रकारसे कहने योग्य है, कहा जाता है । सब यही है, अन्य नहीं।
ऐसा वह परमतत्त्व, पुरुषोत्तम, हरि, सिद्ध, ईश्वर, निरजन, अलख, परब्रह्म, परमात्मा, परमेश्वर और भगवत आदि अनत नामोसे कहा गया है ।।
हम जब परमतत्त्व कहना चाहते है तो उसे किन्ही भी शब्दोमे कहे तो वह यही है, दूसरा नही ।
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बबई, माघ वदी ३०, १९४७ सत्स्वरूपको अभेदभावसे नमोनमः यहाँ आनद है । सर्वत्र परमानद दर्शित है।
क्या लिखना? यह तो कुछ सूझता नही है, क्योकि दशा भिन्न रहती है, तो भी प्रसगसे कोई सवृत्ति पैदा करनेवाली पुस्तक होगी तो भेजंगा। हमपर आपकी चाहे जैसी भक्ति हो, परन्तु सब जावाक और विशेषत धर्मजीवके तो हम त्रिकालके लिये दास ही है।
सबको इतना ही अभी तो करना है कि पुरानेको छोडे बिना तो छुटकारा ही नही हैं, और वह छोडने योग्य ही है ऐसा दृढ करना।
मार्ग सरल है, प्राप्ति दुर्लभ है।
*साथके पत्र पढकर उनमे जो योग्य लगे उसे लिखकर मुनिको दे दीजिये। उन्हें मेरी ओरसे स्मृति और वदन कीजिये । हम तो सबके दास है । त्रिभोवनसे अवश्य कुशल क्षेम पूछिये ।
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बबई, माघ नदी ३०, १९४७ 'सत्' कुछ दूर नहीं है, परन्तु दूर लगता है, और यही जीवका मोह है। 'सत्' जो कुछ है, वह 'सत्' ही है, सरल है, सुगम है, और सर्वत्र उसकी प्राप्ति होती है, परन्तु जिसपर भ्रातिरूप आवरणतम छाया रहता है उस प्राणीको उसकी प्राप्ति कैसे हो? अन्धकारके चाहे जितने प्रकार करें, परन्तु उनमे कोई ऐसा प्रकार नही निकलेगा कि जो प्रकाशरूप हो, इसी प्रकार जिसपर आवरणतिमिर छाया हुआ है उस प्राणीकी कल्पनाओमेंसे कोई भी कल्पना 'सत्' मालूम नही होती
और 'सत्'के निकट होना भी सम्भव नही है । 'सत्' है, वह भ्राति नही है, वह भ्रातिसे सर्वथा व्यतिरिक्त (भिन्न) है, कल्पनासे पर (दूर) है, इसलिये जिसकी उसे प्राप्त करनेकी दृढ मति हुई है वह पहले ऐसा दृढ निश्चयात्मक विचार करे कि स्वय कुछ भी नही जानता, और फिर 'सत्' की प्राप्तिके लिये ज्ञानीकी शरणमे जाये तो अवश्य मार्गकी प्राप्ति होगी।
ये जो वचन लिखे है वे सभी मुमुक्षुओके लिये परम बाधवरूप है, परम रक्षकरूप है, और इनका सम्यक् प्रकारसे विचार करनेपर ये परमपदको देनेवाले है। इनमे निग्रंथ-प्रवचनकी समस्त द्वादशागी, षड्दर्शनका सर्वोत्तम तत्त्व और ज्ञानीके बोधका बीज सक्षेपमे कहा है, इसलिये वारवार इनका स्मरण कीजिये, विचार कीजिये, समझिये, समझनेका प्रयत्न कीजिये, इनके बाधक अन्य प्रकारोमे उदासीन रहिये,
* देखें आक २११, २१२