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श्रीमद् राजचन्द्र कुनबी और कोली जैसी जातिमे भी थोडे ही वर्षोंमे मार्ग-प्राप्त बहुत पुरुष हो गये हैं। उन महात्माओकी जनसमुदायको पहचान न होनेके कारण कोई विरला ही उनसे सार्थकता सिद्ध कर सका है । जीवको महात्माके प्रति मोह ही नही हुआ, यह कैसी अद्भुत ईश्वरीय नियति है ?
वे सब कुछ अन्तिम ज्ञानको प्राप्त नही हुए थे, परन्तु उसकी प्राप्ति उनके बहुत समीप थी । ऐसे बहुतसे पुरुषोके पद इत्यादि यहाँ देखें। ऐसे पुरुषोके प्रति रोमाच बहुत उल्लसित होता है, और मानो निरन्तर उनकी चरणसेवा ही करते रहे, यह एकमात्र आकाक्षा रहती है । ज्ञानीकी अपेक्षा ऐसे मुमुक्षुओपर अतिशय उल्लास आता है, इसका कारण यही कि वे निरन्तर ज्ञानीको चरणसेवा करते हैं, और यही उनका दासत्व उनके प्रति हमारा दासत्व होनेका कारण है। भोजा भगत, निरात कोली इत्यादिक पुरुष योगी (परम योग्यतावाले) थे । निरजन पदको समझनेवालेको निरजन कैसी स्थितिमे रखते है, यह विचार करते हुए अकल गतिपर गम्भीर एव समाधियुक्त हास्य आता है | अब हम अपनी दशाको किसी भी प्रकारसे नही कह सकेंगे, तो फिर लिख कैसे सकेंगे? आपके दर्शन होनेपर जो कुछ वाणी कह सकेगी वह कहेगी, बाकी निरुपायता है। (कुछ) मुक्ति भी नही चाहिये, और जिस पुरुषको जैनका केवलज्ञान भी। नही चाहिये, उस पुरुषको अब परमेश्वर कौनसा पद देगा? यह कुछ आपके विचारमे आता है ? आये तो। आश्चर्य कीजिये, नही तो यहाँसे तो किसी तरह कुछ भी बाहर निकाला जा सके ऐसी सम्भावना मालूम नही होती।
आप जो कुछ व्यवहार-धर्मप्रश्न भेजते है, उनपर ध्यान नही दिया जाता। उनके अक्षर भी पूरे पढनेके लिये ध्यान नही जाता, तो फिर उनका उत्तर न लिखा जा सका हो तो आप किसलिये राह देखते हैं ? अर्थात् वह अब कब हो सकेगा, उसकी कुछ कल्पना नही की जा सकती।
आप वारवार लिखते हैं कि दर्शनके लिये बहुत आतुरता है, परन्तु महावीरदेवने पचमकाल कहा है और व्यास भगवानने कलियुग कहा है, वह कहाँसे साथ रहने दे ? और दे तो आपको उपाधियुक्त किसलिये न रखे?
यह भूमि उपाधिकी शोभाका सग्रहालय है। ___ खीमजी इत्यादिको एक बार आपका सत्सग हो तो जहाँ एक लक्षता करनी चाहिये वहाँ होगी, नही तो होनी दुर्लभ है, क्योकि हमारी अभी बाह्य वृत्ति कम है।
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बबई, पौष सुदी २, सोम, १९४७
कहनेरूप जो मै उसे नमस्कार हो। सर्व प्रकारसे समाधि है।
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बबई, पौष सुदी ५, गुरु, १९४७ *अलखनाम धुनि, लगी गगनमे, मगन भया मन मेरा जी। आसन मारी सुरत दृढ़ धारी, दिया अगम घर डेरा जी॥
दरश्या अलख देदारा जी।
भावार्थ-गगनमें अलख नामकी धुन लगी है, जिसमें मेरा मन मग्न हो गया है। आसन लगाकर सुरतको दृढतासे धारणकर अगमके घर डेरा जमाया है और अलखके स्वरूपका दर्शन किया है ।