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२४ वाँ वर्ष
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परिभ्रमण करते हुए जीवने अनादिकालसे अब तक अपूर्वको नही पाया है । जो पाया है वह सब पूर्वानुपूर्व है । इन सबकी वासनाका त्याग करनेका अभ्यास कीजियेगा । दृढ प्रेमसे और परमोल्लाससे यह अभ्यास विजयी होगा, और वह कालक्रमसे महापुरुषके योगसे अपूर्व की प्राप्ति करायेगा ।
सर्व प्रकारकी क्रियाका, योगका, जपका, तपका और इसके सिवाय अन्य प्रकारका लक्ष्य ऐसा रखिये कि यह सब आत्माको छुडानेके लिये हैं, बन्धनके लिये नही हैं । जिनसे बन्धन हो वे सब (क्रियासे लेकर समस्त योगादि तक ) त्याज्य हैं ।
मिथ्यानामधारीके यथायोग्य |
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सत्स्वरूपको अभेद भक्ति से नमस्कार ।
बंबई, मगसिर सुदी १५, १९४७
आपका पत्र कल मिला ।
आपके प्रश्न मिले । यथासमय उत्तर लिखूँगा । आधार निमित्त मात्र हूँ । आप निष्ठाको सबल करनेका प्रयत्न करें यह अनुरोध है ।
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बबई, मगसिर वदी ७, शुक्र, १९४७ आज हृदय भर आया है । जिससे विशेष प्राय कल लिखूंगा । हृदय भर आनेका कारण भी व्यावहारिक नही है ।
सर्वथा निश्चित रहनेकी विनती है ।
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वि० आ० रायचंद ।
बबई, मगसिर वदी १०, १९४७
सुज्ञ भाई श्री अबालाल,
यहाँ आनंदवृत्ति है । जैसे मार्गानुसारी हुआ जाये वैसे प्रयत्न करना यह अनुरोध है । विशेष क्या लिखना ? यह कुछ सूझता नही है ।
रायचदके यथायोग्य ।
बबई, मगसिर वदी ३०, १९४७
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प्राप्त हुए सत्स्वरूपको अभेदभाव से अपूर्वं समाधिमे स्मरण करता हूँ । महाभाग्य, शातमूर्ति, जीवन्मुक्त श्री सोभागभाई,
यहाँ आपकी कृपासे आनन्द है, आप निरन्तर आनन्दमे रहे यह आशिष है । अन्तिम स्वरूपके समझनेमे, अनुभव करनेमे अल्प भी न्यूनता नही रही है । जैसा है वैसा सर्वथा समझमे आया है। सब प्रकारोका एक देश छोड़कर बाकी सब अनुभवमे आया है । एक देश भी समझमे आनेसे नही रहा, परन्तु योग (मन, वचन, काया) से असंग होनेके लिये वनवासकी आवश्यकता है, और ऐसा होनेपर वह देश भी अनुभवमे आ जायेगा, अर्थात् उसीमे रहा जायेगा, परिपूर्ण लोकालोकज्ञान उत्पन्न होगा, और उसे उत्पन्न करनेकी (वैसे) आकाक्षा नही रही, फिर भी उत्पन्न कैसे होगा ? यह भी आश्चर्यकारक है | परिपूर्ण स्वरूपज्ञान तो उत्पन्न हुआ ही है; और इस समाधिमेसे निकलकर लोकालोकदर्शनके प्रति जाना कैसे होगा ? यह भी एक मुझे नही परन्तु पत्र लिखनेवालेको विकल्प होता है ।