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श्रीमद् राजचन्द्र परमात्मसृष्टि किसीको विषम होने योग्य नही है।
पन्ना ३
पन्ना ४ जीवसृष्टि जीवको विषमताके लिये स्वीकृत है।
पन्ना ५-६ - परमात्मसृष्टि परम ज्ञानमय और परम । . .आनन्दसे परिपूर्ण व्याप्त है । .. पन्ना ७ जीवको स्वसृष्टिसे उदासीन होना योग्य है। . . . . . . पन्ना ८ . हरिकी प्राप्तिके विना जीवका क्लेश दूर नहीं होता। '' पन्ना ९ हरिके गुणग्रामका अनन्य चितन नहीं है,
- यह चिंतन भी विषम है। पंन्ना १० हरिमय हो हम होनेके योग्य हैं।
.... पन्ना ११ हरिको माया है, उससे वह प्रवृत्त होता है।
हरिको वह प्रवृत्त कर सकने योग्य है ही नहीं। ';:. .
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पन्ना १२
वह माया भी होनेके योग्य ही है।
पन्ना १३ ' . माया न होती तो हरिका अकलत्व कौन कहता
पन्ना १४ पन्ना १५
माया ऐसी नियतिसे युक्त है कि उसका प्रेरक अबधन ही होने योग्य है। हरि हरि ऐसा ही सर्वत्र हो, .. . - - - वही प्रतीत हो, उसोका भान हो। - उसीकी सत्ता हमे भासित हो। " . . ..., उसमे ही हमारा अनन्य, अखण्ड . .
. . . अभेद होना योग्य ही था।
पन्ना १६ जीव अपनी सृष्टिपूर्वक अनादिकालसे परिभ्रमण करता है।
हरिको सृष्टिसे अपनी सृष्टिका अभिमान मिटता है। पन्ना १७ ऐसा समझानेके लिये, प्ताप्ति होनेके लिये हरिका अनुग्रह चाहिये। पन्ना १८ तपश्चर्यावान प्राणीको सतोष देना इत्यादि साधन उस परमात्माके अनुग्रहके कारणरूप
। होते हैं।