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श्रीमद राजचन्द्र
प्रवृत्ति करना । जैसे जीवका बंधन निवृत्त हो वैसे करना योग्य है । और इसके लिये हमारे ऊपर कहे हुए सावन है ।" इत्यादि प्रकारसे उन्होने हमे उपदेश दिया था । और जैन आदि मतोका आग्रह मिटाकर उनके आदेशानुसार प्रवृत्ति करनेकी हमारी अभिलाषा उत्पन्न हुई थी, और अब भी वैसी ही है कि मात्र सत्यका ही आग्रह रखना । मतमे मध्यस्थ रहना । वे अभी विद्यमान है । युवावस्था के पहले भाग मे हैं । अभी · उनकी इच्छा अप्रगट रूपसे प्रवृत्ति करनेकी है । नि सदेह स्वरूप ज्ञानावतार है और व्यवहारमे रहते हुए भी वीतराग है । उन कृपालुका समागम होनेके बाद हम विशेषत निराग्रही रहते है । मतमतातर सवधी विवाद खडा नही होता । निष्कपट भावसे सत्यका आराधन करनेकी ही दृढ अभिलाषा है। उन ज्ञानावतार पुरुपने हमे बताया था - "हम अभी प्रगटरूप से मार्ग बताये ऐसी ईश्वरेच्छा नही है' इसलिये हम आपसे अभी कुछ कहना नही चाहते । परन्तु योग्यता आये और जीव यथायोग्य मुमुक्षुता प्राप्त करे इसके लिये प्रयत्न करें ।” ओर इसके लिये उन्होने अनेक प्रकार से सक्षेपमे अपूर्वं उपायोका उपदेश दिया था। अभी उनकी इच्छा अप्रगट ही रहनेकी है, इसलिये परमार्थके सम्बन्धमे वे प्राय मौन ही रहते है । हम पर इतनी अनुपा हुई कि उन्होने इस मौनको विस्मृत किया था और उन्ही सत्पुरुपने आपका समागम करनेकी हमारी इच्छाको जन्म दिया था, नही तो हम आपके समागमका लाभ कहाँसे पा सकते ? आपके गुणको परीक्षा कहाँसे होती ? ऐसी आप अपनो अभिलापा बताना कि हमे आपसे किसी प्रकारसे वोध प्राप्त हो और हमे मार्गकी प्राप्ति हो तो इसमे वे ज्ञानावतार प्रसन्न ही है । हमने उनके शिष्य होनेकी इच्छा रखी थी । तथापि उन्होने बताया था - "अभी प्रगटरूपसे मार्ग कहने की हमे ईश्वराज्ञा नही है, तो फिर आप चाहे जिस सत्सगमे योग्यता या अनुभव प्राप्त करें इसमे हमे संतोष ही है ।" आपके लिये भी उनका ऐसा ही अभिप्राय समझें कि हम आपके शिष्यके तौर पर प्रवृत्ति करें तो भी आप मेरे ही शिष्य हैं ऐसा उन्होनें कहा है | आपके प्रति उन्होने परमार्थयुक्त प्रेमभाव हमे बताया था । यद्यपि उन्हे किसीसे भेदभाव नही है, तथापि आपके प्रति स्नेहभाव किसी पूर्वके कारणसे बताया मालूम होता है । मुक्तात्मा होनेसे वस्तुतः ' उनका नाम, धाम, ग्राम कुछ भी नही है, तथापि व्यवहारसे वैसा है। फिर भी उन्होने यह सब अप्रगट रखने की हमे आज्ञा की है । आपसे वे अप्रगटरूपसे व्यवहार करते है । तथापि आप उनके पास प्रगट है | अर्थात् आपको भी अभी तक उन्होने प्रगट समागम, नाम, धामके बारेमे कुछ भी कहने के लिये हमे प्रेरित नही किया है और ईश्वरेच्छा होगी तो थोडे समय मे आपको उनका समागम होगा ऐसा हम समझते है ।
इस प्रकार प्रसंगानुसार बातचीत करना । किसी भी प्रकारसे नाम, धाम और ग्राम प्रगट करना ही नही और उपर्युक्त वात आपको अपने हृदयमे समझने की है। इसपरसे उस प्रसग मे जो योग्य लगे वह बात करना। उसका भावार्थं न जाना चाहिये ।
'ज्ञानावतार' सम्बन्धी ज्यो ज्यों उनकी इच्छा जागृत हो त्यो त्यो बातचीत करना । ज्ञानावतारका ममागम चाहे इस प्रकारसे वातचीत करें। परन्तु 'ज्ञानावतार' की प्रशसा करते हुए उनका अविनय न हो जाये यह ध्यान रखे । तथा 'ज्ञानावतार' की अनन्य भक्ति भी ध्यान मे रखे ।
to मनमेलका योग लगे तब बताइये कि हम उनके शिष्य है वैसे आपके शिष्य ही है । हमे किसी तरहसे मार्ग की प्राप्ति हो ऐसा बनायें इत्यादि बातचीत कीजिये । और हम कौनसे शास्त्र पढ़ें ? क्या श्रद्धा रखें ? कैसे प्रवृत्ति करे ? योग्य लगे तो यह सब बताये । कृपया आपका हमारेसे भेदभाव न हो । उनका सिद्धात भाग पूछिये । इत्यादि जान लेनेका प्रसम बन जाये तो भी उन्हें बताइये कि हमने जिन ज्ञानावतार पुरुषको बताया है वे और आप हमारे लिये एक हो हैं। क्योकि ऐसी बुद्धि रखनेकी उन ज्ञानवताकी हमे आज्ञा है । मात्र अभी उनको अप्रगट रहने की इच्छा होनेसे हमने उनकी इच्छाका अनु सरण किया है।