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श्रीमद राजचन्द्र
कारण से सन्तोषयुक्त वृत्ति न रहती हो तो तू उसके कहे अनुसार अर्थात् प्रसगकी पूर्णाहुति तक ऐसा करनेमे तू विषम नही होना । तेरे क्रमसे वे सन्तुष्ट रहे तो औदासीन्य वृत्ति द्वारा निराग्ग्रहभावसे उनका भला हो वैसा करनेकी
सावधानी तू रखना ।
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उसकी इससे दूसरे चाहे जिस प्रवृत्ति करके उस प्रसगको पूरा करना,
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मोहाच्छादित दशासे विवेक न हो यह सत्य है, नही तो वस्तुत: यह विवेक यथार्थ है । बहुत ही सूक्ष्म अवलोकन रखें ।
१ सत्यको तो सत्य ही रहने देना ।
२ कर सके उतना कहे, अशक्यता न छिपाएँ ।
३. एकनिष्ठ रहे।
चाहे जिस किसी प्रशस्त कार्यमे एकनिष्ठ रहे । वीतरागने सत्य कहा है ।
अरे आत्मन् । अन्त स्थित दशा ले ।
बबई, चैत्र, १९४६
यह दुख किसे कहना ? और कैसे दूर करना ? आप अपना वैरी, यह कैसी सच्ची बात है ।
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बबई, वैशाख वदी १२, १९४६
सुज्ञ भाईश्री,
आज आपका एक पत्र मिला । यहाँ समय अनुकूल है। वहाँकी समयकुशलता चाहता हूँ । आपको जो पत्र भेजनेकी मेरी इच्छा थी, उसे अधिक विस्तारसे लिखनेकी आवश्यकता होनेसे और वैसा करनेसे उसकी उपयोगिता भी अधिक सिद्ध होनेसे, वैसा करनेकी इच्छा थी, और अब भी है । तथापि कार्योपाधिकी ऐसी प्रबलता है कि इतना शान्त अवकाश मिल नही सकता, मिल नही सका और अभी कुछ समय तक मिलना भी सम्भव नही है । आपको इस समय यह पत्र मिला होता तो अधिक उपयोगी होता, तो भी इसके बाद भी इसकी उपयोगिता तो आप भी अधिक ही मान सकेगे । आपकी जिज्ञासाको कुछ शान्त करनेके लिये उस पत्रका सक्षिप्त वर्णन दिया है ।
मैं इस जन्ममे आपसे पहले लगभग दो वर्ष से कुछ अधिक समयसे गृहाश्रमी हुआ हूँ, यह आपको विदित है । जिसके कारण गृहाश्रमी कहा जा सकता है, उस वस्तुका और मेरा इस अरसेमे कुछ अधिक परिचय नही हुआ है, फिर भी इससे मै उसका कायिक, वाचिक और मानसिक झुकाव बहुत करके समझ सका हूँ, ओर इस कारण से उसका और मेरा सम्बन्ध असन्तोषपात्र नही हुआ है, ऐसा बतलानेका हेतु यह है कि गृहाश्रमका वर्णन अल्प मात्र भी देते हुए तत्सम्बन्धी अनुभव अधिक उपयोगी होता है, मुझे कुछ सास्कारिक अनुभव स्फुरित हो आनेसे ऐसा कह सकता हूँ कि मेरा गृहाश्रम अभी तक जैसे असन्तोषपात्र नही है, वैसे उचित सन्तोषपात्र भो नही है । वह मात्र मध्यम है, और उसके मध्यम होनेमे भी मेरी कितनी ही उदासीनवृत्तिको सहायता है ।
तत्त्वज्ञानकी गुप्त गुफाका दर्शन करने पर गृहाश्रमसे विरक्त होना अधिकतर सूझता है, और अवश्य ही उस तत्त्वज्ञानका विवेक भी इसे उदित हुआ था, कालकी वलवत्तर अनिष्टताके कारण, उसे यथायोग्य समाधिगकी अप्राप्ति के कारण उस विवेकको महाखेदके साथ गौण करना पड़ा, और सचमुच । यदि वैसा न हो सका होता तो उसके (इस पत्रलेखकके) जीवनका अन्त अन्त आ जाता ।