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श्रीमद राजचन्द्र
नही आयेगी, नोरोग रहा नही जायेगा, अनिष्ट सकल्प-विकल्प दूर नही होगे और जगह-जगह भटकना पडेगा, और वह भी ऋद्धि होगी तो होगा, नही तो पहले उसके लिये प्रयत्न करना पडेगा । वह इच्छानुसार मिली या न मिली यह तो एक ओर रहा, परन्तु कदाचित् निर्वाह योग्य मिलनी भी दुर्लभ है । उसीकी चिन्तामे, उसीके विकल्पमे और उसे प्राप्तकर सुख भोगेगे इसी सकल्पमे मात्र दुखके सिवाय और कुछ नही देख सकेंगे । इस वयमे किसी कार्यमे प्रवृत्ति करनेसे सफल हो गये तो एकदम घमड आ जायेगा । सफल न हुए तो लोगोका भेद और अपना निष्फल खेद बहुत दुख देगा । प्रत्येक समय मृत्युके भयवाला, रोगके भयवाला, आजीविका के भयवाला, यश होगा तो उसकी रक्षाके भयवाला, अपयश होगा तो उसे दूर करनेके भयवाला, लेनदारी होगी तो उसे लेनेके भयवाला, ऋण होगा तो उसकी चिन्ताके भयवाला, स्त्री होगी तो उसकी के भयवाला, नही होगी तो उसे प्राप्त करनेके विचारवाला, पुत्रपौत्रादि होगे तो उनकी किचकिचके भयवाला, नही होगे तो उन्हे प्राप्त करनेके विचारवाला, कम ऋद्धि होगी तो अधिकके विचारवाला, अधिक होगी तो उसे सचित रखनेके विचारवाला, ऐसा ही सभी साधनो के लिये अनुभव होगा। क्रमसे या अक्रमसे सक्षेप में कहना यह है कि अब सुखका समय कौनसा कहना ? बालावस्था ? युवावस्था ? जरावस्था ? नीरोगावस्था ? रोगावस्था ? धनावस्था ? निर्धनावस्था ? अ गृहस्थावस्था ?
गृहस्थावस्था ?
इस सब प्रकारके बाह्य परिश्रमके बिना अनुपम अन्तरग विचारसे जो विवेक हुआ वही हमे दूसरी दृष्टि देकर सर्व कालके लिये सुखी करता है । इसका आशय क्या ? यही कि अधिक जिये तो भी सुखी, कम जिये तो भी सुखी, फिर जन्मना हो तो भो सुखी, न जन्मना हो तो भी सुखी ।
( ३ ) बंबई, मगसिर सुदी १-२, रवि, १९४६ हे गौतम ! उस काल और उस समय छद्मस्थ अवस्थामे, मे एकादश वर्षके पर्यायमे, षष्ठभक्तसे षष्ठभक्त ग्रहण करके, सावधानतासे, निरन्तर तपश्चर्या और सयमसे आत्मताकी भावना करते हुए, पूर्वानुपूर्वीसे चलते हुए, एक गाँवसे दूसरे गाँवमे जाते हुए, जहाँ सुषुमारपुर नगर, जहाँ अशोक वनखड उद्यान, जहाँ अशोकवर पादप, जहाँ पृथ्वीशिलापट्ट था, वहाँ आया, आकर अशोकवर पादपके नीचे, पृथ्वीशिलापट्टपर अष्टमभक्त ग्रहण करके, दोनो पैरोको संकुचित करके, करोको लम्बा करके, एक पुद्गलमे दृष्टिको स्थिर करके, अनिमेष नयनसे, शरीरको जरा नीचे आगे झुकाकर, योगको समाधिसे, सर्वं इन्द्रियोको गुप्त करके, एक रात्रिकी महा प्रतिमा धारण करके, विचरता था । ( चमर) '
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( ४ )
बंबई, पौष सुदी ३, बुध, १९४६
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नीचे नियमोपर बहुत ध्यान दे -
१ एक बात करते हुए उसके पूरी न होने तक आवश्यकताके बिना दूसरी बात नही करनी
चाहिये ।
२. कहनेवाले की बात पूरी सुननी चाहिये ।
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। ३ स्वय धीरजसे उसका सदुत्तर देना चाहिये |
४ जिसमे आत्मश्लाघा या आत्महानि न हो वह बात कहनी चाहिये ।
५ धर्म सम्बन्धी अभी बहुत ही कम बात करना |
६ लोगोसे धर्मव्यवहारमे नही पड़ना ।-
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१. श्री भगवती सूत्र, शतक ३, उद्देशक २
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