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श्रीमद राजचन्द्र निर्दोष सुख निर्दोष आनद, ल्यो गमे त्यांथी भले, ए दिव्य शक्तिमान जेथी जंजीरेथी नीकळे; परवस्तुमा नहि मूंझवो, एनी दया मुजने रही, ए त्यागवा सिद्धात के पश्चात्दु.ख ते सुख नहीं ॥३॥ हुं कोण छु ? क्याथी थयो ? शु स्वरूप छे मारुखरु ? कोना संबंधे वळगणा छ ? राखु के ए परहरु ? एना विचार विवेकपूर्वक शांत भावे जो कर्या, तो सर्व आत्मिक ज्ञानना सिद्धांततत्त्व अनुभव्या ॥४॥ ते प्राप्त करवा वचन कोनु सत्य केवळ मानवु ? निर्दोष नरनुं कथन मानो 'तेह' जेणे अनुभव्य; रे ! आत्म तारो । आत्म तारो । शीघ्र एने ओळखो, सर्वात्ममां समदृष्टि द्यो आ वचनने हृदये लखो ॥५॥
शिक्षापाठ ६८ : जितेन्द्रियता जब तक जोभ स्वादिष्ट भोजन चाहती है, जब तक नासिका सुगध चाहती है, जब तक कान वारागनाके गायन और वाद्य चाहते है, जब तक आँखें वनोपवन देखनेका लक्ष रखती हैं, जब तक त्वचा सुगन्धीलेपन चाहती है, तब तक यह मनुष्य नीरागी, निग्रंथ, निष्परिग्रही, निरारभी और ब्रह्मचारी नही हो सकता। मनको वश करना यह सर्वोत्तम है। इससे सभी इन्द्रियाँ वश की जा सकती हैं। मनको जीतना बहुत बहुत दुष्कर है। एक समयमे असख्यात योजन चलनेवाला अश्व यह मन है । इसे थकाना बहुत दुष्कर है । इसकी गति चपल और पकडमे न आ सकनेवाली है। महाज्ञानियोने ज्ञानरूपी लगामसे इसे स्तभित करके सब पर विजय प्राप्त की है। ___उत्तराध्ययनसूत्रमे नमिराज महर्पिने शक्रेन्द्रसे ऐसा कहा कि दस लाख सुभटोको जीतनेवाले कई पड़े है, परन्तु स्वात्माको जीतनेवाले बहुत दुर्लभ है, और वे दस लाख सुभटोको जीतनेवालोकी अपेक्षा अति उत्तम है।
मन ही सर्वोपाधिकी जन्मदात्री भूमिका है। मन हो बध और मोक्षका कारण है। मन ही सर्व ससारकी मोहिनीरूप है। यह वश हो जानेपर आत्मस्वरूपको पाना लेशमात्र दुप्कर नहीं है।
मनसे इन्द्रियोकी लोलुपता है। भोजन, वाद्य, सुगन्ध, स्त्रीका निरीक्षण, सुन्दर विलेपन यह सब मन ही मांगता है। इस मोहिनीके कारण यह धर्मको याद तक नहीं करने देता । याद आनेके बाद सावधान नही होने देता। सावधान होनेके बाद पतित करनेमे प्रवृत्त होता है अर्थात् लग जाता है । इसमे परवस्तुमें तुम मोह मत करो। परवस्तुमे तुम मोह कर रहे हो इसकी मुझे दया आती है । परवस्तुके मोहको छोडनेके . लिये इस सिद्धातको ध्यानमें रखो कि जिस वस्तुके अतमे दुख है वह सुख नही है ॥३॥
___ मैं कौन हूँ ? कहाँसे आया हूँ ? मेरा सच्चा स्वरूप क्या है ? ये सारे लगाव किसके सवघसे है ? इन्हें रखू या छोड दूं ? यदि विवेकपूर्वक और शातभावसे इन वातोका विचार किया तो आत्मज्ञानके सभी सिद्धाततत्त्व अनुभवमें आ गये ॥४॥
इसे प्राप्त करनेके लिये किसके वचनको सर्वथा सत्य मानना ? जिसने इसका अनुभव किया है उस निर्दोष पुरुषके कथनको सत्य मानो । हे भव्यो । अपने आत्माको तारो | अपने आत्माको तारो। उसे शीघ्र पहचानो, और सभी आत्माओमें समदृष्टि रखो, इस वचनको हृदयमें अकित करो ।।५।।