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श्रीमद राजचन्द्र
जैन भी एक पवित्र दर्शन है ऐसा कहनेकी आज्ञा लेता हूँ। यह मात्र यो समझकर कहता हूँ कि जो वस्तु जिस रूपमे स्वानुभवमे आयी हो उसे उस रूपमे कहना चाहिये ।
सभी सत्पुरुष मात्र एक ही मार्गसे तरे है, और वह मार्ग वास्तविक आत्मज्ञान और उसकी अनुचारिणी देहस्थितिपर्यंत सत्क्रिया या रागद्वेष और मोहसे रहित दशा होनेसे वह तत्त्व उन्हे प्राप्त हुआ हो ऐसा मेरा निजी मत है ।
आत्मा ऐसा लिखने के लिये अभिलाषी था, इसलिये लिखा है। इसकी न्यूनाधिकता क्षमापात्र है । वि० रायचदके विनयपूर्वक प्रणाम |
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बबई, कार्तिक, १९४६
( १ )
यह पूरा कागज है, यह 'सर्वव्यापक चेतन है । उसके कितने भागमे माया समझनी ? जहाँ जहाँ वह माया हो वहाँ-वहाँ चेतनको बध समझना या नही ? उसमे भिन्न-भिन्न जीव किस तरह मानने ? और उन जीवोको बध किस तरह मानना ? और उस बधकी निवृत्ति किस तरह माननी ? उस बधकी निवृत्ति होनेपर चेतनका कौनसा भाग मायारहित हुआ माना जाये ? जिस जिस भागमेसे पूर्वमे मुक्त हुए हो उस उस भागको निरावरण समझना अथवा किस तरह ? और एक जगह निरावरणता, तथा दूसरी जगह आवरण, तीसरी जगह निरावरण ऐसा हो सकता है या नही ? इसका चित्र बनाकर विचार करें । सर्वव्यापक आत्मा -
घटाकाश, जीव, बोध, घटव्यय, क्याफल ?
भारता है
चेतन
बोध
इस तरह तो यह घटित नही होता ।
१ 'मानो कि' अध्याहार ।
माया
लोक
ईश्वर
जगत
विराट
को आवरण,