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२३ वो वर्ष
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(२) प्रकाशस्वरूप धाम .. उसमे,अनत अप्रकाश भासमान अंत करण | .
इससे क्या होता है ?
जहाँ जहाँ वे'अंतःकरण व्याप्त हो वहाँ वहाँ माया भासमान हो, आत्मा असग होनेपर भी सगवान मालूम हो, अकर्ता होनेपर भी कर्ता मालूम हो, इत्यादि विपरीतताएं होती है ।'
इससे क्या होता है ? आत्माको बधकी कल्पना होती है उसका क्या करना ? अत करणका सम्बन्ध दूर करनेके लिये उससे अपनी भिन्नता समझनी। भिन्नता समझनेसे क्या होता है ? आत्मा स्वस्वरूपमे अवस्थित रहता है। एकदेश निरावरण होता है या सर्वदेश निरावरण होता है ?
, बबई, कार्तिक सुदी १५,१९४६
समुच्चयवयचर्या ' 'सम्वत् १९२४ को कार्तिक सुदी १५, रविवारको मेरा जन्म होनेसे आज मुझे सामान्य गणनासे बाईस वर्ष पूरे हए । बाईस वर्षकी अल्प वयमे मैने अनेक रग आत्माके सम्बन्धमे, मनके सम्बन्धमे, वचनके सम्बन्धमे, तनके सम्बन्धमे और धनके सम्बन्धमे देखे हैं। नाना प्रकारकी सृष्टिरचना, नाना प्रकारकी सासारिक तरंगें, अनत दु खमूल, इन सबका अनेक प्रकारसे मुझे अनुभव हुआ है। समर्थ तत्त्वज्ञानियोने और समर्थ नास्तिकोने जो जो विचार किये हैं उस प्रकारके अनेक विचार इस अल्प वयमे मैने किये है। महान चक्रवर्ती द्वारा किये गये तृष्णाके विचार और एक निस्पृही महात्मा द्वारा किये गये निस्पृहताके विचार मैंने किये है । अमरत्वकी सिद्धि और क्षणिकत्वको सिद्धिका खूब विचार किया है। अल्प वयमे महान विचार कर डाले है । महान विचित्रताकी प्राप्ति हुई है । यह सब बहुत गम्भीर भावसे आज मै दृष्टि डालकर देखता है तो पहलेकी मेरी उगती हुई विचारश्रेणि, आत्मदशा और आजकी, दोनोमे आकाशपातालका अतर है, उसका सिरा और इसका सिरा किसी कालमे मानो मिलाया मिले वैसा नही है। परन्तु आप सोचेंगे कि इतनी सारी विचित्रताका किसी स्थलपर कुछ लेखन-चित्रण किया है या नही? तो इस विषयमे इतना ही कह सकंगा कि लेखन-चित्रण सब स्मृतिके चित्रपट पर है। किन्तु पत्र-लेखनीका समागम करके जगतमे दर्शानेका प्रयत्न नही किया है । यद्यपि मैं ऐसा समझ सकता है कि वह वयचर्या जनसमूहके लिये बहुत उपयोगी, पुन पुन मनन करने योग्य तथा परिणाममे उनकी ओरसे मुझे श्रेयकी प्राप्ति हो वैसी है, परन्तु मेरी स्मृतिने वह परिश्रम उठानेकी मुझे स्पष्ट ना कही थी, इसलिये निरुपायतासे क्षमा मांग लेता है। पारिणामिक विचारसे उस स्मृतिको इच्छाको दबाकर उसी स्मृतिको समझाकर, वह वयचर्या धीरे धीरे सभव हुआ तो अवश्य धवल-पत्रपर रखूगा, तो भी समुच्चयवयचर्याको याद कर जाता हूँ :-.
सात वर्ष तक बालवयकी खेलकूदका अत्यत सेवन किया था। उस समयकी मुझे इतनी तो याद आती है कि विचित्र कल्पना-कल्पनाका स्वरूप या हेतु समझे बिना-मेरे आत्मामे हुआ करती थी। खेलकूदमे भी विजय पानेकी और राजेश्वर जैसी उच्च पदवी प्राप्त करनेकी परम अभिलापा थी । वस्त्र पहननेकी, स्वच्छ रखनेको, खाने-पीनेकी, सोने-बैठनेकी, सारी विदेही दशा थी, फिर भी अत.करण कोमल