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२३ वाँ वर्ष प्रीति इसमे भी हुई और उसमे भी रही । धीरे-धीरे यह प्रसग बढा । फिर भी स्वच्छ रहनेके तथा दूसरे आचारविचार मुझे वैष्णवोके प्रिय थे और जगतकर्ताकी श्रद्धा थी । उस अरसेमे कठी टूट गई, इसलिये उसे फिरसे मैने नही बाँधा । उस समय बाँधने, न बाँधनेका कोई कारण मैंने ढूंढा न था । यह मेरी तेरह वर्षकी वयचर्या है | फिर मैं अपने पिताकी दूकानपर बैठता और अपने अक्षरोकी छटाके कारण कच्छदरबारके उतारेपर मुझे लिखनेके लिये बुलाते तब मै वहाँ जाता । दूकानपर मैने नाना प्रकारकी लीलालहर की है, अनेक पुस्तके पढी हैं; राम इत्यादिके चरित्रोपर कविताएँ रची हैं, सासारिक तृष्णाएँ की हैं, फिर भी किसी को मैंने न्यूनाधिक दाम नही कहा या किसीको न्यून अधिक तौल कर नही दिया, यह मुझे निश्चित याद है ।
बबई, कार्तिक, १९४६
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दो भेदोमे विभक्त धर्मको तीर्थकरने दो प्रकारका कहा है
१ सर्वसंगपरित्यागी |
२ देशपरित्यागी ।
सर्व परित्यागी :--
पात्र
भाव और द्रव्य । उसका अधिकारी |
पात्र, क्षेत्र, काल, भाव ।
-
वैराग्य आदि लक्षण, त्यागका कारण और पारिणामिक भावकी ओर देखना ।
क्षेत्र -
उस पुरुषकी जन्मभूमि, त्यागभूमि ये दो ।
अधिकारीकी वय, मुख्य वर्तमान काल ।
विनय आदि, उसकी योग्यता, शक्ति ।
गुरु उसे प्रथम क्या उपदेश करे ?
'दशवेकालिक', 'आचाराग' इत्यादि सम्बन्धी विचार,
काल---
भाव
उसके नवदीक्षित होनेक कारण उसे स्वतंत्र विहार करने देनेकी आज्ञा इत्यादि ।
नित्यचर्या ।
वर्ष कल्प |
अतिम अवस्था ।
देशत्यागी :आवश्यक क्रिया ।
नित्य कल्प । भक्ति ।
( तत्सम्बन्धी परम आवश्यकता है । )
अणुव्रत ।
दान-शील-तप-भावका स्वरूप । ज्ञानके लिये उसका अधिकार ।
( तत्सवधी परम आवश्यकता है । )