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२३ वाँ वर्ष
वि० स० १९४६ भाई, इतना तो तेरे लिये अवश्य करने योग्य है .
१. देहमे विचार करनेवाला बैठा है वह देहसे भिन्न है ? वह सुखी है या दु.खी है ? यह याद कर ले।
२. दुःख लगेगा ही, और दु.खके कारण भी तुझे दृष्टिगोचर होगे, फिर भी कदाचित् न हो त मेरे० किसी भागको पढ जा, इससे सिद्ध होगा। उसे दूर करनेका जो उपाय है वह इतना ही कि उससे बाह्याभ्यन्तररहित होना।
३ रहित हुआ जाता है, और ही दशाका अनुभव होता है, यह प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ।
४ उस साधनके लिये सर्वसंगपरित्यागी होनेकी आवश्यकता है । निर्ग्रन्थ सद्गुरुके चरणमे जाकर पड़ना योग्य है।
५ जैसे भावसे पड़ा जाये वैसे भावसे सर्वकाल रहनेका विचार पहले कर ले । यदि तुझे पूर्वकर्म बलवान लगते हो तो अत्यागी, देशत्यागी रहकर भी उस वस्तुको मत भुलाना।
६. प्रथम चाहे जैसे करके तू अपने जीवनको जान । जानना किसलिये ? भविष्यसमाधि होनेके लिये | अब अप्रमादी होना।
७ इस आयुका मानसिक आत्मोपयोग तो निर्वेदमे रख ।
८ जीवन बहुत छोटा है, उपाधि बहुत है, और उसका त्याग नही हो सकता है, तो नीचेकी बाते पुन पुनः ध्यानमे रख
१ उस वस्तुकी अभिलाषा रखना ।
२ ससारको बधन मानना । __३ पूर्वकर्म नही है ऐसा मानकर प्रत्येक धर्मका सेवन किये जाना। फिर भी यदि पूर्वकर्म
दुःख दे तो शोक नही करना। ४. देहकी जितनी चिन्ता रखता है उतनी नही परन्तु उससे अनन्तगुनी चिंता आत्माकी
रख, क्योकि अनन्त भवोको एक भवमे दूर करना है। ५ न चले तो प्रतिश्रोती हो जा। ६. जिसमेसे जितना हो उतना कर । ७. पारिणामिक विचारवाला हो जा। ८. अनुत्तरवासी होकर रह । ९ अतिमको किसी भी समय न चूकियेगा । यही अनुरोध और यही धर्म ।