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श्रीमद् राजचन्द्र
नही है ऐसे नरक - निगोदादिक स्थानोका इस आत्माने वहुत बहुत काल तक वारम्वार सेवन किया है, असह्य दुखोको पुन पुन अथवा यो कहिये कि अनतवार सहन किया है । इस उत्तापसे निरंतर संतप्त होता हुआ आत्मा मात्र स्वकर्मविपाकसे पर्यटन करता है । पर्यटनका कारण अनत दुखद ज्ञानावरणीयादि कर्म है, जिनके कारण आत्मा स्वस्वरूपको पा नही सकता, और विषयादिक मोह बधनको स्वस्वरूप मान रहा है। इन सबका परिणाम मात्र ऊपर कहा वही है कि अनत दुःखको अनत भावोंसे सहन करना, चाहे जितना अप्रिय, चाहे जितना दुखदायक और चाहे जितना रौद्र होनेपर भी जो दुख अनतकालसे अनतवार सहन करना पडा, वह दुख मात्र उस अज्ञानादिक कर्मके कारण सहन किया, उस अज्ञानादिकको दूर करनेके लिये ज्ञानकी परिपूर्ण आवश्यकता है ।
शिक्षापाठ ७८ : ज्ञानसंबंधी दो शब्द --- भाग २
२ अव ज्ञानप्राप्तिके साधनोके विषयमे कुछ विचार करे । अपूर्ण पर्याप्तिसे परिपूर्ण आत्मज्ञान सिद्ध नही होता, इसलिये छ पर्याप्तिसे युक्त देह ही आत्मज्ञानको सिद्ध कर सकती है। ऐसी देह एक मात्र मानवदेह है | यहा पर यह प्रश्न उठेगा कि मानवदेहको प्राप्त तो अनेक आत्मा हैं, तो वे सब आत्मज्ञानको क्यो नही प्राप्त करते ? इसके उत्तरमे हम यह मान सकेंगे कि जिन्होने सपूर्ण आत्मज्ञानको प्राप्त किया है उनके पवित्र वचनामृतको उन्हे श्रुति नही है। श्रुतिके बिना सस्कार नही है । यदि सस्कार नही है तो फिर श्रद्धा कहाँसे होगी ? और जहाँ यह एक भी नही है वहाँ ज्ञानप्राप्ति कहाँसे होगी ? इसलिये मानवदेहके साथ सर्वज्ञवचनामृतकी प्राप्ति और उसकी श्रद्धा यह भी साधनरूप है । सर्वज्ञवचनामृत अकर्मभूमि या केवल अनार्यभूमिमे नही मिलते, तो फिर मानवदेह किस उपयोग की ? इसलिये आर्यभूमि भी साधनरूप है । तत्त्व की श्रद्धा उत्पन्न होनेके लिये और बोध होनेके लिये निर्ग्रन्थ गुरुकी आवश्यकता है । द्रव्यसे जो कुल मिथ्यात्वी है उस कुलमे हुआ जन्म भी आत्मज्ञानकी प्राप्ति मे हानिरूप ही है । क्योकि धर्ममतभेद अति दुःखदायक है । परपरासे पूर्वजो द्वारा ग्रहण किये हुए दर्शनमे ही सत्यभावना बनती है, इससे भी आत्मज्ञान रुकता है । इसलिये उत्तम कुल भी आवश्यक है । इन सवको प्राप्त करनेके लिये भाग्यशाली होना चाहिये। इसमे सत्पुण्य अर्थात् पुण्यानुवधी पुण्य इत्यादि उत्तम साधन है । यह साधनभेद कहा ।
३ यदि साधन है तो उनके अनुकूल देश और काल हैं ? इस तीसरे भेदका विचार करें। भारत, महाविदेह इत्यादि कर्मभूमि और उसमे भी आर्यभूमि यह देशकी अपेक्षासे अनुकूल है । जिज्ञासु भव्य । तुम सब इस कालमे भारतमे हो, इसलिये भारत देश अनुकूल है । कालकी अपेक्षासे मति और श्रुत प्राप्त किये जा सके इतनी अनुकूलता है; क्योंकि इस द षम पचमकालमे परम्पराम्नायसे परमावधि, मन पर्याय और केवल ये पवित्र ज्ञान देखनेमे नही आते, इलिये कालकी परिपूर्ण अनुकूलता नही है ।
४ देश, काल आदि यदि अनुकूल है कहाँ तक है ? इसका उत्तर है कि शेष रहा हुआ सैद्धातिक मतिज्ञान, श्रुतज्ञान सामान्यमतसे कालकी अपेक्षासे इक्कीस हजार वर्ष तक रहेगा। इनमेसे ढाई हजार वर्ष वोत गये, बाकी साढे अठारह हजार वर्ष रहे, अर्थात् पचमकालकी पूर्णता तक कालको अनुकूलता है । इसलिये देश, काल अनुकूल हैं ।
शिक्षापाठ ७९ अव विशेष विचार करें
१ आवश्यकता क्या है ? इस महान विचारका मंथन पुन विशेषतासे करें । मुख्य आवश्यक यह है कि स्वस्वरूप स्थितिकी श्रेणिपर चढना । जिससे अनत दुःखका नाश हो, दुःखके नाशसे आत्माका
ज्ञानसबंधी दो शब्द --
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- भाग, ३