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श्रीमद राजचन्द्र
हुए उन-मतवादियोको देखे, यह बहुत असभवित है । सबमे एकसी बुद्धि प्रगट होकर, उसका सशोधन होकर, वीतरागकी आज्ञारूप मार्गका प्रतिपादन हो, यह यद्यपि सर्वथा असभव जैसा है, फिर भी सुलभबोधी आत्मा अवश्य इसके लिये प्रयत्न करते रहे तो परिणाम श्रेष्ठ आये यह बात मुझे सभवित लगती है ।
दु षम कालके प्रतापसे जो लोग विद्याका बोध ले सके है, उन्हे धर्मतत्त्वपर मूलसे ही श्रद्धा दिखाई नही देती। जिस सरलताके कारण कुछ श्रद्धा होती है उसे इस विषयकी कुछ सूझबूझ नही होती । यदि कोई सूझबूझवाला निकल आये तो उसे उस वस्तुको वृद्धिमे विघ्नकर्त्ता मिलेगे, परन्तु सहायक नही होगे, ऐसी आजकी कालचर्या है । इस प्रकार शिक्षितोंके लिये धर्मकी दुर्लभता हो गयी है ।
अशिक्षित लोगोमे यह एक स्वाभाविक गुण रहा है कि हमारे बापदादा जिस धर्मको मानते आये है, उस धर्ममे ही हमे प्रवर्तन करना चाहिये, और वही मत सत्य होना चाहिये, और अपने गुरुके वचनोपर ही हमे विश्वास रखना चाहिये, फिर चाहे वह गुरु शास्त्रोके नाम भी न जानता हो, परन्तु वही महाज्ञानी है ऐसा मानकर प्रवृत्ति करनी चाहिये । और हम जो मानते हैं वही वीतरागका उपदिष्ट धर्म है, बाकी जो जैन नामसे प्रचलित है वे सभी मत असत् है । ऐसी उनकी समझ होनेसे वे बिचारे उसी मतमे रचेपचे रहते हैं । अपेक्षासे देखें तो उनका भी दोष नही है
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जो जो मत जैनमे प्रचलित है उनमे प्राय जैनसम्बन्धी ही क्रियाएँ हो यह मानी हुई बात है । तदनुसार प्रवृत्ति देखकर जिस मतमे स्वय दीक्षित हुए हो, उस मतमे ही दीक्षित पुरुषोका रचा-पचा रहना होता है । दीक्षितो भी भद्रिकताके कारण ली हुई दीक्षा, या भिक्षा माँगने जैसी स्थितिसे घबराकर ग्रहण की गई दीक्षा, या स्मशानवैराग्यसे ली गयी दीक्षा होती है। शिक्षाकी मापेक्ष स्फुरणासे प्राप्त हुई दीक्षा - वाला पुरुष आप विरल ही देखेंगे, और देखेंगे तो वह मतसे तग आकर वीतरागदेवकी आज्ञामे राचनेके लिये अधिक तत्पर होगा ।
जिसे शिक्षाको सापेक्ष स्फुरणा हुई है, उसके सिवाय दूसरे जितने मनुष्य दीक्षित या गृहस्थ हैं सब जिस मतमे स्वय पडे होते हैं उसीमे रागी होते हैं, उन्हे विचारकी प्रेरणा देनेवाला कोई नही मिलता । अपने मतसबधी नाना प्रकारके आयोजित विकल्प (चाहे फिर उनमे यथार्थ प्रमाण हो या न हो) समझाकर गुरु अपने पंजेमे रखकर उन्हे चला रहे है ।
इसी प्रकार त्यागी गुरुओके अतिरिक्त बरबस बन बैठे महावीरदेवके मार्गरक्षक गिने जानेवाले यति हैं, उनकी तो मार्गप्रवर्तनकी शैलीके लिये कुछ कहना ही नही रहता । क्योकि गृहस्थके तो अणुव्रत भी होते है, परतु ये तो तीर्थंकर देवकी भाँति कल्पातीत पुरुष हो बैठे हैं ।
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सशोधक पुरुष बहुत कम है। मुक्त होनेकी अत करणमे अभिलाषा रखनेवाले और पुरुषार्थ करनेवाले बहुत कम हैं । उन्हे साधन जैसे कि सद्गुरु, सत्सग या सत्शास्त्र मिलने दुर्लभ हो गये है । जहाँ पूछने जायें वहाँ सब अपना अपना राग अलापते है । फिर वह सच्चा या झूठा इसका कोई भाव नही पूछता । भाव पूछनेवालेके आगे मिथ्या विकल्प करके अपनी ससारस्थिति बढाते है और दूसरेको वैसा निमित्त बनाते है ।
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अधूरे पूरा कोई सशोधक आत्मा होगा तो वह अप्रयोजनभूत पृथ्वी इत्यादिक विषयोमे शका होनेसे रुक गया है । अनुभव धर्म पर आना उसके लिये भी दुष्कर हो गया है ।
इस परसे मैं ऐसा नही कहता कि वर्तमानमे कोई भी जैनदर्शनके आराधक नही हैं,, है सही, परन्तु बहुत ही थोड़े बहुत ही थोडे, और जो है वे ऐसे कि जिन्हे मुक्त होनेके अतिरिक्त और कोई अभिलाषा नही है, और जिन्होने अपना आत्मा वीतरागकी आज्ञामे समर्पित कर दिया है और वे भी अगुलियो पर गिने