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२२ वा वर्ष
१९७ एक सत्पुरुषको प्रसन्न करनेमे, उसकी सर्व इच्छाओको प्रशसा करनेमे, उसे ही सत्य माननेमे पूरी जिन्दगी बीत गई तो अधिकसे अधिक पद्रह भवमे तू अवश्य मोक्षमे जायेगा।
वि० रायचंदके प्रणाम
वि० स० १९४५ *"सुखकी सहेली है, अकेली उदासीनता"।
अध्यात्मनी जननी ते उदासीनता ॥ लघु वयथी अद्भुत थयो, तत्त्वज्ञाननो बोध । ए ज सूचवे एम के, गति आगति का शोध ? ॥१॥ जे संस्कार थवो घटे, अति अभ्यासे काय। विना परिश्रम ते थयो, भवशंका शी त्यांय ? ॥२॥ जेम जेम मति अल्पता, अने मोह उद्योत । तेम तेम भवशकना, अपात्र अन्तर ज्योत ॥३॥ करी कल्पना दृढ़ करे, नाना नास्ति विचार। पण अस्ति ते सूचवे, ए ज खरो निर्धार ॥४॥ आ भव वण भव छे नहीं, ए ज तर्क अनुकूळ। विचारता पामी गया, आत्मधर्मनु मूळ ॥५॥ [ अगत] ७८
वि० सं० १९४५ स्त्रीके संबधमे मेरे विचार
(१) अति अति स्वस्थ विचारणासे ऐसा सिद्ध हुआ है कि शुद्ध ज्ञानके आश्रयमे निरावाध सुख रहा है, और वही परम समाधि रही है।
*भावार्थ-अकेली उदासीनता सुखकी सहेली है । यह उदासीनता अध्यात्मको जननी है।
छोटी उमरमें ही तत्त्वज्ञानका अद्भुत बोध हुआ। यही सूचित करता है कि अब गमन-आगमन अर्थात जन्म-मरणकी खोज किसलिये? वैयक्तिक दृष्टिसे इस पद्यका अर्थ यह है-छोटी उमरमें ही तत्त्वज्ञानका वोघ हो जानेसे यह फलित होता है कि 'पुनर्जन्म है' इसलिये तुझे जन्म-मरणको खोज करनेकी जरूरत नही है ॥१॥
___ जो ज्ञान-सस्कार अत्यत अभ्याससे होने योग्य है, वह परिश्रमके बिना ही सहज हो गया, तो फिर अव पुनर्भवकी शका कैसी ? ॥२॥
ज्यो ज्यो वद्धि-ज्ञान कम होता जाता है, और मोह बढ़ता जाता है, त्यो त्यो अपान जीवोके अतरमें अज्ञानकी अधिकता होनेसे, पुनर्भव सवधी शका प्रवल होती जाती है ॥३॥
कोई कल्पना करके नाना प्रकारके नास्तिक विचारो-आत्मा नहीं है, मोक्ष नही है इत्यादि-को दढ करता है, परन्तु वे विविध 'नास्ति' विचार ही 'अस्ति' का सूचन करते हैं, क्योकि 'नास्ति'--न + अस्तिमे ही 'अस्ति'का सूचन निहित है । और यही निणय वास्तविक ह ॥४॥
यही एक वडा अनुक्ल तर्क है कि यह भव दूसरे भवके बिना नहीं हो सकता। यह न्याययुक्त तर्क तत्त्वप्राप्तिके लिये अनुक्ल योग्य साधन है। इस तरह उत्तरोत्तर विचार करते-करते विचारशील जीव भात्मधर्मका मूल प्राप्त करके कृतार्थ हो गये हैं ॥५॥
[निजो