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२२ वाँ वर्ष
१७९ मेरे प्रति मोहदशा न रखे, मैं तो एक अल्पशक्तिवाला पामर मनुष्य हूँ। सृष्टिमे अनेक सत्पुरुष गुप्तरूपमे मौजूद हैं। प्रगटरूपमे भी मौजूद हैं। उनके गुणोका स्मरण करे । उनका पवित्र समागम करे और आत्मिक लाभसे मनुष्यभवको सार्थक करे यह मेरी निरन्तर प्रार्थना है। दोनो साथ मिलकर यह पत्र पढे । जल्दी होनेसे इतनेसे ही अटकता हूँ।
लि० रायचन्दके प्रणाम विदित हो ।
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। बंबई, मार्गशीर्ष वदी १२, शनि, १९४५
___ सुज्ञ,
विशेष विदित हुआ होगा। "
मै यहाँ समयानुसार आनन्दमे हूँ। आपका आत्मानन्द चाहता हूँ। चि० जूठाभाईका आरोग्य सुधरनेके लिये पूर्ण धीरज दीजियेगा । मै भी अब यहाँ कुछ समय रहनेवाला हूँ। ... एक बड़ी विज्ञप्ति है कि पत्रमे निरन्तर शोचसम्बन्धी न्यूनता और पुरुषार्थकी अधिकता प्राप्त हो, इस तरह पत्र लिखनेका परिश्रम लेते रहें। विशेष अब फिर।।' . '
रायचंदके प्रणाम ।
बबई, मार्गशीर्ष वदी ३०, १९४५ सुज्ञ,
जूठाभाईकी स्थिति विदित हुई। मैं निरुपाय हूँ। यदि न चले तो प्रशस्त राग रखें, परन्तु मझे खुदको, आप सबको इस रास्तेके अधीन न करे। प्रणाम लिखू इसकी भी चिन्ता न करें । अभी प्रणाम करने लायक ही हूँ, करवानेके नही।
वि० रायचदके प्रणाम ।
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। “मार्गशीर्ष, १९४५ आपका प्रशस्तभावभूषित पन मिला । सक्षेपमे उत्तर यह है कि जिस मार्गसे आत्मत्व प्राप्त हो उस मार्गको खोजें। मझपर प्रशस्तभाव लायें ऐसा मैं पात्र नही हूँ, फिर भी यदि आपको इस तरह शाति मिलती हो तो करें।
दसरा चित्रपट तैयार नही होनेसे जो है वह भेजता हूँ। मुझसे दूर रहनेमे आपके आरोग्यको हानि हो ऐसा नही होना चाहिये । सब कुछ आनन्दमय ही होगा। अभी इतना ही।
रायचदके प्रणाम । ४७ वाणिया बदर, माघ सुदी १४, बुध, १९४५
सत्पुरुषोको नमस्कार सुज्ञ,
मेरी ओरसे एक पत्र पहुंचा होगा। आपके पत्रका मैंने मनन किया । आपको वृत्तिमे हुआ परिवर्तन मुझे आत्महितकारी लगता है।
अनतानुवधी क्रोध, अनतानुबधी मान, अनतानुवघी माया और अनतानुबंधी लोभ ये चार तथा मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय ये तीन इस तरह इन सात प्रकृतियोका जब तक क्षयोपशम, उपशम या क्षय नहीं होता तब तक सम्यक्दृष्टि होना सम्भव नही है। ये सात प्रकृतियाँ ज्यो ज्यो मद होती जाती हैं त्यो त्यो सम्यक्त्वका उदय होता है। इन प्रकृतियोका ग्रन्यिछेदन परम दुष्कर है।