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१३ अतिभोग
१४ दूसरेका अनिष्ट चाहना १५ निष्कारण कमाना
१७ वाँ वर्ष
१६. बहुतोका स्नेह
१७ अयोग्य स्थानमे जाना
१८ एक भी उत्तम नियमको सिद्ध नही करना । अष्टादश पापस्थानकका क्षय तव तक नही होगा जब तक इन अष्टादश विघ्नोंसे मनका सम्बन्ध है । ये अष्टादश दोप नष्ट होनेसे मनोनिग्रह और अभीष्ट सिद्धि हो सकती है । जब तक ये दोष मनसे निकटता रखते है तब तक कोई भी मनुष्य आत्मसार्थकता नही कर सकता । अति भोगके स्थानपर सामान्य भोग नही परन्तु जिसने सर्वथा भोगत्यागव्रत धारण किया है तथा जिसके हृदयमे इनमे से एक भी दोषका मूल नही है वह सत्पुरुष बडभागी है ।
शिक्षापाठ १०१ : स्मृतिमें रखने योग्य महावाक्य
१ एक भेदसे नियम ही इस जगतका प्रवर्तक है ।
२ जो मनुष्य सत्पुरुषोके चरित्ररहस्यको पाता है वह मनुष्य परमेश्वर हो जाता है ।
३ चचल चित्त हो सर्व विषम दुखोका मूल है ।
४ बहुतोका मिलाप और थोडोके साथ अति समागम ये दोनो समान दु खदायक है ।
५ समस्वभावीका मिलना इसे ज्ञानी एकान्त कहते हैं ।
६ इन्द्रियां तुम्हे जीतें और तुम सुख मानो इसकी अपेक्षा उन्हे जीतनेमे हो तुम सुख, आनन्द और परमपद प्राप्त करोगे ।
७ रागके बिना ससार नही और ससारके बिना राग नही ।
८ युवावस्थाका सर्वसंगपरित्याग परमपदको देता है ।
९ उस वस्तु विचारमे लगो कि जो वस्तु अतीन्द्रियस्वरूप है । १० गुणीके गुणमे अनुरक्त होओ।
शिक्षापाठ १०२ विविध प्रश्न - भाग १
आज मै तुमसे कितने ही प्रश्न निग्रन्थप्रवचनके अनुसार उत्तर देनेके लिये पूछता हूँ ।
प्र० - कहो धर्मकी आवश्यकता क्या है ?
उ०- अनादिकालीन आत्माके कर्मजालको दूर करनेके लिये ।
प्र० - जीव पहले या कर्म ?
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उ०- दोनो अनादि ही है, यदि जीव पहले हो तो इस विमल वस्तुको मल लगनेका कोई निमित्त चाहिये । कर्म पहले कहो तो जीवके विना कर्म किये किसने ? इस न्यायसे दोनो अनादि ही है ।
प्र० - जीव रूपी या अरूपी ?
उ०- रूपी भी है और अरूपी भी है ।
प्र०-
-रूपी किस न्यायसे और अरूपी किस न्यायसे ? यह कहो । उ०- देहके निमित्तसे रूपी और स्वस्वरूपसे अरूपी है । प्रo - देह निमित्त किस कारणसे है ?
उ०- स्वकर्मके विपाकसे ।
?
प्र० - कर्मकी मुख्य प्रकृतियाँ कितनी हैं
उ०- आठ ।