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विशेष |
श्रीमद् राजचन्द्र
८५ धर्मका मूल वि० है |
८६ उसका नाम विद्या है कि जिससे अविद्या प्राप्त न हो ।
८७ वीरके एक वाक्यको भी समझें ।
८८ अहपद, कृतघ्नता, उत्सूत्रप्ररूपणा और अविवेकधर्म ये दुर्गतिके लक्षण है ।
८९ स्त्रीका कोई अग लेशमात्र भी सुखदायक नही है, फिर भी मेरी देह उसे भोगती है ।
९० देह और देहार्थममत्व यह मिथ्यात्वका लक्षण है ।
९१. अभिनिवेशके उदयमे उत्सूत्रप्ररूपणा न हो उसे मै ज्ञानियोंके कहने से महाभाग्य कहता हूँ । ९२ स्याद्वाद शैली से देखते हुए कोई मत असत्य नही है ।
८९३ जानी स्वादके त्यागको आहारका सच्चा त्याग कहते है ।
९४ अभिनिवेश जैसा एक भी पाखंड नही है ।
९५ इस कालमे इतना बढ़ा - अतिशय मत, अतिशय ज्ञानी, अतिशय माया और अतिशय परिग्रह
९६ तत्त्वाभिलाषासे मुझे पूछे तो मै आपको नीरागीधर्मका उपदेश जरूर कर सकूँगा ।
९७ जिसने सारे जगतका शिष्य होनेरूप दृष्टिका वेदन नही किया वह सद्गुरु होने योग्य नही है । ९८. कोई भी शुद्धाशुद्ध धर्मकरनी करता हो तो उसे करने दें ।
९९ आत्माका धर्म आत्मामे ही है ।
१०० मुझपर सभी सरल भावसे हुक्म चलाये तो मै राजी हूँ ।
१०१. मैं संसारसे लेश भी रागसयुक्त नही, फिर भी उसीको भोगता हूँ, मैने कुछ त्याग नहीं किया । १०२ निर्विकारी दशासे मुझे अकेला रहने दें ।
१०३ महावीरने जिस ज्ञानसे इस जगतको देखा है वह ज्ञान सब आत्माओमे है, परंतु उसका आविर्भाव करना चाहिये ।
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१०४ बहुत बहक जाएँ तो भी महावीरकी' आज्ञाका भग न कीजियेगा । चाहे जेसी शका हो तो भी मेरी ओरसे वीरको निशक मानिये ।
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१०५ पार्श्वनाथस्वामीके ध्यानका स्मरण योगियोको अवश्य करना चाहिये । नि ० - नागकी छत्रछायाके समयका वह पार्श्वनाथ ओर ही था ।
१०६ गजसुकुमारकी क्षमा और राजेमती रहनेमीको जो बोध देती है वह बोध मुझे प्राप्त होवें । १०७ भोग भोगने तक [जब तक वह कर्म है तब तक ] मुझे योग ही प्राप्त रहे ।
१०८ सव शास्त्रोका एक तत्त्व मुझे मिला है ऐसा कहूँ तो यह मेरा अहपद नही है ।
१०९ न्याय मुझे बहुत प्रिय है। वीरकी शैली हो न्याय हैं, समझना दुष्कर है । ११० पवित्र पुरुषोकी कृपादृष्टि ही सम्यग्दर्शन है ।
१११ भर्तृहरिका कहा हुआ त्याग, विशुद्ध बुद्धिसे विचार करनेसे बहुत ऊर्ध्वज्ञानदशा होने तक
रहता है ।
११२ में किसी धर्मसे विरुद्ध नही हूँ। मै सव धर्मोंका पालन करता हूँ । आप सभी धर्मोसे विरुद्ध है यो कहने मेरा उत्तम हेतु है ।
११३. आपके माने हुए धर्मका उपदेश मुझे किस प्रमाणसे देते है उसे जानना मेरे लिये आवश्यक है ।
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११४ शिथिल व दृष्टिसे नीचे आकर ही बिखर जाये (-यदि निर्जरामे आये तो ) ११५ किसी भी शास्त्रमे मुझे शका न हो ।