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श्रीमद् राजचन्द्र
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जीवाजीव विभक्ति
जीव और अजीवके विचारको एकाग्र मनसे श्रवण करें। जिसे जानकर भिक्षु सम्यक् प्रकारसे सयममे यत्न करते हैं ।
जीव और अजीव ( जहाँ हो उसे ) लोक कहा है। अजीवके आकाश नामके भागको अलोक
कहा है ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे जीव और अजीवका बोध हो सकता है ।
रूपी और अरूपी इस प्रकार अजीवके दो भेद होते हैं । अरूपीके दस प्रकार और रूपीके चार प्रकार कहे हैं ।
धर्मास्तिकाय, उसका देश, और उसके प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, उसका देश, और उसके प्रदेश, आकाश, उसका देश, और उसके प्रदेश, अद्धासमय कालतत्त्व, इस प्रकार अरूपीके दस प्रकार होते हैं । धर्म और अधर्मं ये दोनो लोक प्रमाण कहे हैं ।
आकाश लोकालोकप्रमाण और अद्धासमय समयक्षेत्र' - प्रमाण है । धर्म, अधर्मं और आकाश ये अनादि अपर्यवस्थित हैं ।
निरंतरको उत्पत्तिको अपेक्षासे समय भी इसी प्रकार हैं । सतति एक कार्यकी अपेक्षासे सादिसा है।
स्कंध, स्कधदेश, उसके प्रदेश और परमाणु इस तरह रूपी अजीव चार प्रकारके हैं । जिसमे परमाणु एकत्र होते हैं और जिससे परमाणु पृथक होते हैं वह स्कंध है । उसका विभाग देश और उसका अतिम अभिन्न अश प्रदेश है ।
वह लोकके एक देशमें क्षेत्री है । उसके कालके विभाग चार प्रकारके कहे जाते हैं । निरन्तर उत्पत्तिकी अपेक्षासे अनादि अपयवस्थित है । एक क्षेत्रकी स्थितिको अपेक्षासे सादिसपर्य
वस्थित है ।
[ अपूर्ण ]
( उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन ३६ )
कार्तिक, १९४३
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१ प्रमादके कारण आत्मा प्राप्त हुए स्वरूपको भूल जाता है ।
२ जिस जिस कालमे जो जो करना है उसे सदा उपयोगमे रखे रहे ।
३ फिर क्रमसे उसकी सिद्धि करें ।
४ अल्प आहार, अल्प विहार, अल्प निद्रा, नियमित वाचा, नियमित काया और अनुकूल स्थान, ये मनको वश करनेके उत्तम साधन हे ।
५ श्रेष्ठ वस्तुकी अभिलाषा करना ही आत्माकी श्रेष्ठता है । कदाचित् वह अभिलाषा पूरी न हुई तो भी वह अभिलाषा भो उसीके अंशके समान है ।
६ नये कर्मोंको नही बाँधना और पुरानोको भोग लेना, ऐसी जिसकी अचल अभिलाषा है, वह तदनुसार वर्तन कर सकता है ।
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१. मनुष्यक्षेत्र - ढाईद्वीप प्रमाण ।
७ जिस कृत्यका परिणाम धर्म नहीं है, उस कृत्यको करनेकी इच्छा मूलसे ही नही रहने देनी
चाहिये ।