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२१ वाँ वर्ष
३६ वदामि प्रभुवर्द्धमानपादम्
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प्रतिमाके कारण यहाँ समागममे आनेवाले लोग बहुत प्रतिकूल रहते है । यो ही मतभेदसे अनन्तकाल और अनन्त जन्ममे भी आत्माने धर्म नही पाया । इसलिये सत्पुरुष उसे नही चाहते, परन्तु स्वरूपश्रेणिको चाहते हैं ।
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बम्बई, भाद्रपद वदी १, शनि, १९४४
३७ बम्बई बन्दर, आसोज वदी २, गुरु, १९४४ पार्श्वनाथ परमात्माको नमस्कार
प्रिय भाई सत्याभिलाषी उजमसी, राजनगर ।
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आपका हस्तलिखित शुभ पत्र मुझे कल सांयकाल मिला । आपकी तत्त्वजिज्ञासा के लिये विशेष सन्तोष हुआ ।
जगतको अच्छा दिखाने के लिये अनन्त वार प्रयत्न किया, फिर भी उससे अच्छा नही हुआ । क्योकि परिभ्रमण और परिभ्रमणके हेतु अभी प्रत्यक्ष विद्यमान हैं। यदि एक भव आत्माका भला करनेमे व्यतीत हो जायेगा, तो अनन्त भवोका बदला मिल जायेगा, ऐसा मैं लघुत्वभावसे समझा हूँ, और वैसा करनेमे ही मेरी प्रवृत्ति है । इस महावन्धनसे रहित होनेमे जो-जो साधन और पदार्थ श्रेष्ठ लगें, उन्हे ग्रहण करना, यही मान्यता है, तो फिर उसके लिये जगतकी अनुकूलता प्रतिकूलता क्या देखनी ? वह चाहे जैसे बोले, परन्तु आत्मा यदि बन्धनरहित होता हो, समाधिमय दशा पाता हो तो वैसे कर लेना । जिससे सदाके लिये कीर्ति-अपकीर्तिसे रहित हुआ जा सकेगा ।
अभी उनके और इनके पक्षके लोगोंके जो विचार मेरे विषयमें हैं, वे मेरे ध्यानमे हैं ही, परन्तु उन्हे विस्मृत कर देना ही श्रेयस्कर है। आप निर्भय रहिये । मेरे लिये कोई कुछ कहे उसे सुनकर मौन रहिये, उनके लिये कुछ शोक - हर्ष न कीजियेगा । जिस पुरुषपर आपका प्रशस्त राग है, उसके इष्ट देव परमात्मा जिन, महायोगीन्द्र पार्श्वनाथ आदिका स्मरण रखिये और यथासम्भव निर्मोही होकर मुक्त दशाको इच्छा करिये । जोवितव्य या जीवनपूर्णता सम्बन्धी कुछ सकल्प-विकल्प न कीजियेगा। उपयोगको शुद्ध करनेके लिये इस जगत के सकल्प-विकल्पोको भूल जाइये, पार्श्वनाथ आदि योगीश्वरकी दशाका स्मरण करिये, और वही अभिलाषा रखे रहिये, यही आपको पुन पुन आशीर्वादपूर्वक मेरी शिक्षा है । यह अल्पज्ञ आम भी उस पदका अभिलाषी और उस पुरुषके चरणकमलमे तल्लीन हुआ दीन शिष्यं है । आपको वैसी श्रद्धाकी ही शिक्षा देता है । वीरस्वामी द्वारा उपदिष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे सर्वस्वरूप यथातथ्य है, इसे न भूलियेगा । उनकी शिक्षाकी किसी भी प्रकारसे विराधना हुई हो तो उसके लिये पश्चात्ताप कीजिये । इस कालकी अपेक्षासे मन, वचन और कायाको आत्मभावसे उनकी गोदमे अर्पण करें, यही मोक्षका मार्ग है । जगतके सव दर्शनोकी - मतोकी श्रद्धाको भूल जाइये, जैनसम्वन्धी सब विचार भूल जाइये, मात्र उन सत्पुरुपोके अद्भुत, योगस्फुरितं चरित्रमे ही उपयोगको प्रेरित कीजियेगा ।
इस आपके माने हुए 'पूज्य' के लिये किसी भी प्रकारसे हर्ष-शोक न कीजियेगा, उसको इच्छा मात्र सकल्प-विकल्पसे रहित होनेकी ही है, उसका इस विचित्र जगत से कुछ सम्बन्ध या लेना-देना नही है । इसलिये उसमे उसके लिये चाहे जो विचार किये जाये या कहे जाये उनकी ओर अव ध्यान देनेकी इच्छा नही है । जगतमेसे जो परमाणु पूर्वकालमे इकट्ठे किये है उन्हे धीरे-धीरे उसे देकर ऋणमुक्त होना, यही उसकी सदा उपयोगसहित, प्रिय, श्रेष्ठ और परम अभिलाषा है, वाकी उसे कुछ नही आता, वह दूसरा कुछ नही चाहता, पूर्वकर्म के आधारसे उसका सारा विचरना है, ऐसा समझकर परम सन्तोष रखिये, यह