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२०वॉ वर्ष
जैसे कंचुक-त्यागसे, बिनसत नहीं भुजंग | देह त्यागसे जीव पुनि, तैसे रहत अभंग ॥'
जैसे कॉचलीका त्याग करनेसे साँपका नाश नही होता, वैसे देहका त्याग करनेसे जीव भी अभग रहता है अर्थात् नष्ट नही होता । यहाँ इस बातकी सिद्धि की है कि जीव देहसे भिन्न है ।
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बहुत से लोग कहते है कि देह और जीवकी भिन्नता नही है, देहका नाश होनेसे जीवका भी नाश हो जाता है । यह मात्र विकल्परूप है, परन्तु प्रमाणभूत नही है, क्योकि वे कॉचलीके नाशसे साँपका भी नाश हुआ समझते है । और यह बात तो प्रत्यक्ष है कि साँपका नाश कॉचली के त्यागसे नही है । उसी प्रकार जीवके लिये है ।
देह तो जीवकी काँचली मात्र है । जब तक काँचली सॉपके साथ लगी हुई है तब तक जैसे साँप चलता है वैसे वह उसके साथ चलती हैं, उसकी भाँति मुडती है और उसको सभी क्रियाएँ सॉपकी क्रिया अधीन हैं | सॉपने उसका त्याग किया कि फिर उनमेसे एक भी क्रिया कॉचली नही कर सकती । पहले वह जिन क्रियाओको करती थी, वे सब क्रियाएं मात्र सॉपकी थी, उनमे कॉचलीका मात्र सबध था । इसी प्रकार जैसे जीव कर्मानुसार क्रिया करता है वैसे देह भी क्रिया करती है - चलती है, बैठती है, उठती हैयह सब होता है जीवरूप प्रेरकसे, उसका वियोग होनेके बाद कुछ नही होता, [ अपूर्ण ]
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जीवतत्त्वसम्बन्धी विचार
एक प्रकारसे, दो प्रकारसे, तीन प्रकारसे, चार प्रकारसे, पाँच प्रकारसे और छ प्रकारसे जीवतत्त्व समझा जा सकता है |
सब जीवोको कमसे कम श्रुतज्ञानका अनतवाँ भाग प्रकाशित रहनेसे सब जीव चैतन्यलक्षणसे एक ही प्रकारके है ।
त्रस जीव अर्थात् जो घूपमेसे छायामे आयें, छाया मेसे धूपमे आयें, चलने की शक्तिवाले हो और भय देखकर त्रास पाते हो, ऐसे जीवोकी एक जाति है । दूसरे स्थावर जीव अर्थात् जो एक ही स्थलमे स्थितिवाले हो, ऐसे जीवोकी दूसरी जाति है । इस तरह सब जीव दो प्रकारसे समझे जा सकते है ।
सब जीवोको वेदसे जाँचकर देखें तो स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदमे उनका समावेश होता है । कोई जीव स्त्रीवेदमे, कोई जीव पुरुषवेदमे और कोई जीव नपु सकवेदमे होते है । इनके अतिरिक्त चौथा वेद न होनेसे वेददृष्टिसे सब जीव तीन प्रकारसे समझे जा सकते है ।
कितने ही जीव नरकगतिमे, कितने ही तिर्यंचगतिमे, कितने ही मनुष्यगतिमे और कितने ही देवगतिमे रहते हैं । इनके अतिरिक्त पॉचवी ससारी गति न होनेसे जीव चार प्रकारसे समझे जा सकते है । [ अपूर्ण ]
१ पद्य सख्या ३८६ ।
२ नव तत्त्व प्रकरण, गाथा ३
एगविह दुविह तिविहा, चउव्विहा पच छव्विहा जीवा । वेय-गई - करण - काहि ॥३॥
चेयण-तस - इयरेहि,
भावार्थ--- जीव अनुक्रमसे चेतनरूप एक हो भेद द्वारा एक प्रकारके है, अस और स्थावररूपसे दो प्रकारके हैं, वेदरूपसे तीन प्रकारके, गतिरूपसे चार प्रकारके, इन्द्रियरूपसे पांच प्रकारके और कायाके भेदसे छ प्रकारके भी कहलाते हैं ।